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तत्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
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पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ मास में ४ बार उपवास कर लेने मात्र से ही चौथी प्रतिमाधारी श्रावक नहीं हो जाता तथा केवल भोजन नहीं करने का नाम उपवास नहीं है। क्योंकि -
कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते।
उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ।। जहाँ कषाय, विषय, आहार तीनों का त्याग हो वह उपवास है, शेष सब लंघन है।
५. सचित्तत्याग प्रतिमा जो सचित्त भोजन तजै, पीवै प्रासुक नीर।
सो सचित्त त्यागी पुरुष, पंच प्रतिज्ञा गीर ।। पाँचवीं प्रतिमावाले साधक आत्मलीनता चौथी प्रतिमा से भी अधिक होती है, अतः आसक्तिभाव भी कम हो जाता है। शरीर की स्थिति के लिए भोजन तो लेने का भाव आता है, लेकिन सचित्त भोजनपान करने का विकल्प नहीं उठता; अत: यह सचित्त भोजन त्याग कर देता है और प्रासुक पानी काम में लेता है। पाँचवीं प्रतिमाधारी श्रावक की जो आंतरिक शुद्धि है, वह निश्चय प्रतिमा है
और मंद कषायरूप शुभ भाव तथा सचित्त भोजन-पान का त्याग व्यवहार प्रतिमा है।
जिसमें उगने की योग्यता हो - ऐसे अन्न एवं हरी वनस्पति को सचित्त कहते हैं।
६. दिवामैथुनत्याग प्रतिमा जो दिन ब्रह्मचर्य व्रत पालै, तिथि आये निशिदिवस संभाले।
गहि नव वाड़ करै व्रत रक्षा, सो षट् प्रतिमा श्रावक अख्या ।।' १. मोक्षमार्गप्रकाशक : पण्डित टोडरमल, पृष्ठ : २३१ २. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ६४ ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार : आचार्य समन्तभद्र, श्लोक : १४१ ४. नव वाड़-१) स्त्रियों के समागम में न रहना, २) रागभरी दृष्टि से न देखना, ३) परोक्ष में
(छुपाकर) संभाषण, पत्राचार आदि न करना, ४) पूर्व में भोगे भोगों का स्मरण नहीं करना, ५) कामोत्पादक गरिष्ठ भोजन नहीं करना, ६) कामोत्मादक श्रृंगार नहीं करना, ७) स्त्रियों के आसन, पलंग आदि पर नहीं सोना, न बैठना, ८) कामोत्पादक कथा, गीत
आदि नहीं सुनना, ९) भूख से अधिक भोजन नहीं करना । ५. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ६५
इस प्रतिमा के योग्य यथोचित्त शुद्धि, वह निश्चय प्रतिमा है तथा त्यागरूप शुभभाव वह व्यवहार प्रतिमा है। साधक जीव ने दूसरी प्रतिमा में स्वस्त्री संतोषव्रत तो लिया था, लेकिन अब स्वरूपस्थिरता उसकी अपेक्षा बढ़ जाने से आसक्ति भी घट गई है, अत: छठवीं प्रतिमाधारी श्रावक नव वाड़ सहित हमेशा दिवस के समय एवं अष्टमी, चतुर्दशी आदि तिथि पर्व के दिन रात में भी ब्रह्मचर्य व्रत को पालता है और ऐसे अशुभ भाव नहीं उठने देने के प्रतिज्ञा करता है। आचार्य समन्तभद्र ने छठवीं प्रतिमा को रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा भी कहा है। वैसे तो रात्रि भोजन का साधारण श्रावक को ही त्याग होता है। लेकिन इस प्रतिमा में कृत, कारित व अनुमोदनापूर्वक सभी प्रकार के आहारों का त्याग हो जाता है।
७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा जो नव वाड़ि सहित विधि साथै, निशदिन ब्रह्मचर्य आराधे।
सो सप्तम प्रतिमाधर ज्ञाता, शील शिरोमणि जगत विख्याता ।।' सातवीं प्रतिमाधारी श्रावक की स्वरूपानंद में विशेष लीनता (शुद्ध परिणति) बढ़ जाने से आसक्ति भाव और भी घट जाता है, अत: हमेशा के लिए दिन-रात में अर्थात् पूर्ण रूप से नव वाड़ सहित ब्रह्मचर्य व्रत पालता है और उपरोक्त प्रकार के भाव नहीं होने देने की प्रतिज्ञा लेता है, अत: उसकी प्रवृत्ति भी तदनुकूल ही होती है। ऐसे श्रावक को शील शिरोमणि कहा जाता है।
८. आरम्भत्याग प्रतिमा जो विवेक विधि आदरै, करै न पापारम्भ।
सो अष्टम प्रतिमा धनी, कुगति विजय रणथम्भ।। आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक की यथोचित शुद्धि निश्चय प्रतिमा है। संसार, देह, भोगों के प्रति उदासीनता व राग अल्प हो जाने के कारण उठनेवाले विकल्प भी मर्यादित हो जाते हैं व बाह्यारंभ का त्याग व्यवहार प्रतिमा है।
आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक स्वरूपस्थिरतारूप धर्माचरण में विशेष सावधानी रखता हुआ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि पापारंभ करने के विकल्पों का त्याग कर देने से सभी प्रकार के व्यापार का त्याग कर देता है। १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार : आचार्य समन्तभद्र, श्लोक : १४२ २. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ६६ ३. वही, छंद : ६८
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D'Shrutes 5.6.14 shruteshikwa
na maaari