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सूक्तिसंग्रह हार में स्थित मणि ही शोभा को प्राप्त होती है, काँच नहीं। ७८, कारणे जृम्भमाणेऽपि न हि कार्यपरिक्षयः ।।११/७२ ।।
कारण के विद्यमान रहने पर कार्य का विनाश नहीं होता। ७९. कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति ।।११/७।।
कार्य करने का उचित समय निकल जाने पर कार्य बिगड़ जाता है। ८०. कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ।।४/९।।
रसायन के प्रभाव से लोहा भी सोना बन जाता है। ८१. किं पुष्पावचय:शक्य: फलकाले समागते ।।१/३६।।
फलोत्पत्ति का काल आने पर क्या फूलों की प्राप्ति सम्भव है ? ८२. किंन मुञ्चन्ति रागिणः ।।१/७२।।
विषयासक्त मनुष्य क्या-क्या नहीं छोड़ देते हैं ? ८३. किंगोष्पदजलक्षोभी क्षोभयेज्जलधेर्जलम् ।।२/५३ ।।
गाय के खुर-प्रमाण जल को तरंगित करनेवाला छोटा-सा मेंढक क्या समुद्र
के जल को तरंगित कर सकता है? ८४. किं स्यात्किं कृत इत्येवं चिन्तयन्ति हि पीडिताः।।२/६६ ।।
कौन-सा कार्य किस फल के लिए होगा - पीड़ित लोग यही विचार करते
'क-ख-ग' ९०, कृत्याकृत्यविमूढा हि गाढस्नेहान्धजन्तवः ।।२/७३ ।।
अति स्नेह से अन्धे पुरुष कर्तव्य-अकर्तव्य के विचार से रहित होते हैं। ९१. कोऽनन्धो लङ्घयेद्गुरुम् ।।२/३९ ।।
कौन ज्ञानवान शिष्य गुरु के आदेश का उल्लंघन करेगा? ९२. क्वचित्किमपि सौजन्यं नो चेल्लोकः कुतो भवेत् ।।४/३४ ।।
यदि संसार में कहीं पर भी सज्जनता न रहे तो संसार कैसे चलेगा? ९३. क्व विद्या पारगामिनी ।।१०/२५||
विरले व्यक्ति ही परिपूर्ण विद्या के धारी होते हैं।
९४. खाताऽपि हिनदी दत्ते पानीयं न पयोनिधिः ।।१०/५३ ।।
सूख जाने पर भी खोदी हुई नदी ही प्यासों को मीठा जल देती है, समुद्र नहीं।
'ग'
८५.कुत्सितं कर्म किं किंवा मत्सरिभ्यो न रोचते ।।४/१८ ।।
ईर्ष्या करनेवालों को कौन-कौन से खोटे कार्य अच्छे नहीं लगते? ८६. कूपे पिपतिषुर्बालो न हि केनाऽप्युपेक्षते ।।६/९।।
कुएँ में गिरते हुए बालक की कोई भी उपेक्षा नहीं करता। ८७. क्रूराः किं किं न कुर्वन्ति कर्म धर्मपराङ्मखाः ।।४/४॥
धर्म से परांगमुख क्रूर पुरुष क्या-क्या खोटे कार्य नहीं करते ? ८८. कृतार्थानां हि पारार्थ्यमैहिकार्थपराङ्मखम् ।।७/७६ ।।
परोपकारी पुरुषों का परोपकार इस लोक सम्बन्धी प्रयोजनों से रहित होता है। ८९. कृतिनोऽपिन गण्या हि वीतस्फीतपरिच्छदाः ।।८/३२ ।।
पुण्यवान पुरुषों को समृद्धि-परिवार आदिसेरहित नहीं समझना चाहिए।
९५. गतेर्वार्ता हि पूर्वगा ।।१०/१७।।
समाचारों की गति अति तेज होती है, वे मनुष्य के पहुँचने के पूर्व ही दूर तक
पहुँच जाते हैं। ९६. गत्यधीनं हि मानसम् ।।१/६५ ।।
मन के विचार भविष्य में होनेवाली गति के अनुसार ही होते हैं। ९७. गर्भाधानक्रियामात्रन्यूनौ हि पितरौ गुरुः ।।२/५९।।
मात्र गर्भाधान क्रिया को छोड़कर गुरु ही शिष्य के लिए माता-पिता हैं। ९८. गात्रमात्रेण भिन्नं हि मित्रत्वं मित्रता भवेत् ।।२/७५ ।।
शरीर मात्र से भिन्न मित्रपना ही मित्रता कहलाती है। ९९. गुणज्ञो लोक इत्येषा किम्वदन्ती हि सूनृतम् ।।५/१५।।
यह कहावत सत्य है कि मनुष्य गुणग्राही होते हैं। १००. गुरुरेव हि देवता ।।१/१११ ।।
गुरु ही देवता है।