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सूक्तिसंग्रह ५७. आस्थायां हि विना यत्नमस्ति वाक्कायचेष्टितम् ।।८/९।।
प्रेम होने पर प्रयत्न किये बिना ही वचन और शरीर की प्रवृत्ति होती है। ५८. आस्था सतां यश:कायेन हास्थायिशरीरके।।१/३७।।
सज्जन पुरुषों की श्रद्धा यशरूपी शरीर में होती है, नश्वर शरीर में नहीं।
६७. एककोटिगतस्नेहो जडानां खलु चेष्टितम् ।।८/३१ ।।
इकतरफा प्रीति करना मूल् की चेष्टा है। ६८. एकार्थस्पृहया स्पर्धा न वर्धेतात्र कस्य वा ।।४/१६ ।।
एक ही पदार्थ की इच्छा होने से किसके स्पर्धा नहीं बढ़ती? ६९. एतादृशेन लिङ्गेन परलोको हि साध्यते ।।४/३९ ।।
प्रशंसात्मक बातों से अन्य मनुष्य वश में किये जाते हैं। ७०. एधोगवेषिभिर्भाग्ये रत्नं चापि हि लभ्यते ।।८/३० ।।
भाग्योदय होने पर लकड़हारे को भी रत्न की प्राप्ति हो जाती है। ७१. एधोन्वेषिजनैर्दृष्टः किंवा न प्रीतये मणिः ॥१/९६ ।।
ईन्धन तलाशनेवाले मनुष्यों द्वारा देखी गईमणि क्या प्रसन्नता केलिए नहीं होती?
५९. इष्टस्थाने सती वृष्टिस्तुष्टये हि विशेषतः।।४/४१ ।।
इष्ट स्थान में होनेवाली वर्षा विशेष आनन्द देनेवाली होती है।
६०. ईर्ष्या हि स्त्रीसमुद्भवा ।।४/२६।।
ईर्ष्या स्त्रियों से उत्पन्न हुई है।
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७२. ऐहिकातिशयप्रीतिरतिमात्रा हि देहिनाम् ।।९/३ ।।
मनुष्य को सांसारिक उत्कर्ष में ही अधिक प्रेम होता है।
७३. कः कदा कीदृशो न स्याद्भाग्ये सति पचेलिमे ।।७/२९ ।।
भाग्य के उदय होने पर कौन, कब और कैसा महान बनेगा - यह कह नहीं
६१. उक्तिचातुर्यतो दाळमुक्तार्थे हि विशेषतः ।।९/२७।।
कथन की चतुराई से कहे हुए विषय में विशेष दृढ़ता आती है। ६२. उत्पथस्थे प्रबुद्धानामनुकम्पा हि युज्यते ।।७/६१।।
मिथ्यामार्ग पर चलनेवाले मनुष्यों पर बुद्धिमानों की कृपा उचित ही है। ६३. उदात्तानां हि लोकोऽयमखिलो हि कुटुम्बकम् ।।२/७० ।।
उदार चरित्रवालों को सम्पूर्ण विश्व कुटुम्ब के समान है। ६४. उदारा: खलु मन्यन्ते तृणायेदं जगत्त्रयम् ।।७/८२ ।।
उदारचित्त महापुरुष तीन लोक की सम्पत्ति को तृण के समान तुच्छ मानते हैं। ६५. उपायपृष्ठरूढा हि कार्यनिष्ठानिरङ्कशाः ।।१०/२३ ।।
उत्तम उपाय में तत्पर पुरुष कार्य को नियम से सिद्ध करते हैं।
सकते।
७४. कणिशोद्गमवैधुर्ये केदारादिगुणेन किम् ।।११/७५ ।।
पौधों में अन्नोत्पत्ति की सामर्थ्य न होने पर खेत आदि सामग्री अच्छी होने से
भी क्या प्रयोजन ? ७५. करुणामात्रपात्रं हि बाला वृद्धाश्च देहिनाम् ।।९/८।।
बालक तथा वृद्ध मात्र दया के पात्र होते हैं। ७६. काकार्थफलनिम्बोऽपि श्लाघ्यते न हि चूतवत् ।।३/९ ।।
कौए के लिए नीम का वृक्ष आम के वृक्ष के समान प्रशंसनीय नहीं होता। ७७. काचो हि याति वैगुण्यं गुण्यतां हारगोमणिः ।।११/२।।
६६. एककण्ठेषु जाता हि बन्धुता ह्यवतिष्ठते ।।८/३५।।
एकसमान व्यवहार करनेवालों में ही मित्रता स्थिर रहती है।