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________________ षट्कारक अनुशीलन कुछ प्रश्नोत्तर ३७ कर्म जीव के गुणों को नहीं करता, परन्तु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणाम जानो। इसकारण आत्मा अपने ही भाव से कर्ता है, परन्तु पुद्गलकर्म द्वारा किये गये सर्व भावों का कर्ता नहीं है।" जिसप्रकार मिट्टी द्वारा घड़ा किया जाता है, उसीप्रकार अपने भाव द्वारा अपना भाव किया जाता है इसलिए, जीव अपने भावों का कर्ता कदाचित् है, किन्तु जिस प्रकार मिट्टी द्वारा वस्त्र नहीं किया जा सकता, उसीप्रकार अपने भाव द्वारा परभाव किया जाना अशक्य होने से (जीव) पुद्गल भावों का कर्ता तो कदापि नहीं है यह निश्चय है। - समयसार गाथा ८०, ८१, ८२ (ब)."....संसार और नि:संसार अवस्थाओं का पुद्गल कर्म के विपाक का संभव और असंभव निमित्त होने पर भी पुद्गलकर्म और जीव को व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से, कर्ताकर्मपने की असिद्धि होने से, जीव ही स्वयं अंतर्व्यापक होकर संसार अथवा नि:संसार अवस्था में आदि-मध्य-अंत में व्याप्त होकर ससंसार अथवा नि:संसार ऐसे अपने को करता हुआ अपने एक को ही करता हुआ प्रतिभासित हो परन्तु अन्य को करता हुआ प्रतिभासित न हो...." -समयसार गाथा ८३ (स). “आत्मा अपने ही परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित हो, पुद्गल के परिणाम का करता तो कभी प्रतिभासित न हो। आत्मा और पुद्गल दोनों की क्रिया एक आत्मा ही करता है - ऐसा माननेवाले मिथ्यादृष्टि हैं। जड़-चेतन की एक क्रिया हो तो सर्वद्रव्य बदल जाने से सर्व का लोप हो जाये यह महान दोष उत्पन्न होगा।" (द) "...इसलिए जीव के परिणाम को, अपने परिणाम को और अपने परिणाम के फल को न जाननेवाला ऐसा पुद्गल द्रव्य......परद्रव्य परिणामस्वरूप कर्म को नहीं करता, इसलिए उस पुद्गलद्रव्य को जीव के साथ कर्ता कर्मभाव नहीं है।” -समयसार गाथा ७९ की टीका (य)."...कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता है ही नहीं; किन्तु सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमित होते हैं। मात्र यह जीव व्यर्थ ही कषायभाव करके व्याकुल होता है और कदाचित् अपनी इच्छानुसार ही पदार्थ परिणमित हो, तथापि वह अपने परिणमित करने से तो परिणमित हो, तथापि वह अपने परिणमित करने से तो परिणमित हुआ नहीं है; किन्तु जिसप्रकार बालक चलती हुई गाड़ी को धकेलकर ऐसा मानता है कि “इस गाड़ी को मैं चला रहा हूँ" इसीप्रकार वह असत्य मानता है। - मोक्षमार्गप्रकाशक अध्याय ४ इस पर से सिद्ध होता है कि जीव के भाव का परिणमन और पौद्गलिक कर्म का परिणमन एक-दूसरे से निरपेक्ष स्वतंत्र है; इसलिए जीव में रागादिभाव वास्तव में द्रव्यकर्म के उदय के कारण होते हैं; जीव सचमुच द्रव्यकर्म को करता है और उसका फल भोगता है - इत्यादि मान्यता वह विपरीत मान्यता है। जीव के रागादिभाव के कारण कर्म आये और कर्म का उदय आया इसलिए जीव में रागादिभाव हुआ - ऐसा है ही नहीं। जीव के भावकर्म और द्रव्यकर्म के बीच मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्मभाव नहीं है, क्योंकि दोनों में अत्यंताभाव है। प्रश्न ९. आत्मा को स्वयंभू क्यों कहा? उत्तर : शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव से स्वयमेव छहकारकरूप आविर्भूत होने से स्वयंभू है। प्रश्न १०. व्यवहार कारकों को असत्य क्यों कहा? उत्तर : परमार्थत: कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के भले-बुरे का कर्ता नहीं हो सकता । फिर भी व्यवहारी बाह्य साधन ढूँढने की व्यग्रता से दु:खी होते हैं और 17
SR No.008379
Book TitleShatkarak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size126 KB
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