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कुछ प्रश्नोत्तर
ऐसौ सुविवेक जाकै हिरदै प्रगट भयौ,
ताको भ्रम गयौ ज्यौं तिमिर भागै भानसौं । सोई जीव करमकौ करता सौ दीसै पै,
अकरता कह्यौ है सुद्धता के परमानसौं ।।५।। जो द्रव्य जिसप्रकार का होता है, उसके गुण-पर्याय भी उसीप्रकार के होते हैं और वे उसी से मिलते हैं, किसी अन्य द्रव्य से नहीं । जीव चेतन जाति का द्रव्य है और पुद्गल जड़ (अचेतन) जाति का । इसप्रकार इन दोनों में जातिभेद है। इनका मिलाप उसीप्रकार अमिल (असंभव) है, जिसप्रकार कि नितंब पर कान का होना । कान (कर्ण) तो चेहरे पर ही होता है, नितंब पर नहीं।
जिसप्रकार कान का नितंब पर होना संभव ही नहीं है, उसीप्रकार जड़ और चेतन का, कर्म और जीव का मिलाप भी असंभव है । इसप्रकार का विवेक जिसके हृदय में जागृत हो जाता है, उसका भ्रम उसीप्रकार भाग जाता है, जिसप्रकार कि सूर्य के उगने पर अंधकार भाग जाता है । यद्यपि ऐसा जीव इस अज्ञानी जगत को कर्ता के समान ही दिखाई देता है, तथापि वह परमागम में शुद्धनय से अकर्ता ही कहा गया है।
इस कलश में यह बात एकदम उभर कर आई है कि यह भगवान आत्मा दया-दानादिरूप शुभास्रवों का भी कर्त्ता नहीं है, पर उसे जानता अवश्य है, उसके ज्ञान का कर्ता अवश्य है और वह ज्ञान उसका कार्य है, कर्म है। तात्पर्य यह है कि विकारी भावों का कर्त्ता नहीं होने पर भी, उनके जाननेरूप निर्मल परिणमन का कर्ता आत्मा है।
कुछ प्रश्नोत्तर प्रश्न १. 'आत्मा प्रज्ञा द्वारा भेदज्ञान करता है', इस वाक्य में कारक खोजिए?
उत्तर : आत्मा कर्ता, प्रज्ञा करण, भेदज्ञान कर्म - ये तीन कारक हैं।
प्रश्न २. 'आत्मा में से आत्मा द्वारा शुद्धता प्रगट होती है', इस वाक्य में कितने कारक एवं कौन-कौन से हैं ?
उत्तर : अपादान, करण और कर्म - ये तीन कारक हैं। प्रश्न ३. ये छहों कारक द्रव्य हैं, गुण हैं या पर्याय हैं ?
उत्तर : ये छहों कारक द्रव्य में रहनेवाले सामान्य और अनुजीवी गुण हैं। प्रतिसमय इनकी नई-नई पर्यायें होती रहती हैं।
प्रश्न ४. आत्मा केवलज्ञान प्राप्त करता है; इस वाक्य में छहों कारक किसप्रकार घटित होते हैं ?
उत्तर : केवलज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले आत्मा को बाह्य सामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है। शुद्धोपयोग में लीन आत्मा स्वयं ही छह कारक रूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है।
वह आत्मा स्वयं ही अनंतशक्तिवान ज्ञायकस्वभावी स्वतंत्र होने से स्वयं ही कर्ता है; स्वयं अनंतशक्तिवान केवलज्ञान को प्राप्त करता है इसलिए आत्मा की ही केवलज्ञान पर्याय कर्म है अथवा केवलज्ञान से स्वयं अभिन्न होने के कारण आत्मा स्वयं ही कर्म है; अपने अनंतशक्तिवान परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधन द्वारा केवलज्ञान प्राप्ति करता है इसलिए आत्मा स्वयं ही करण है; स्वयं को ही केवलज्ञान देता है; आत्मा स्वयं ही सम्प्रदान है; अपने में से मति-श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता है और स्वयं ही सहज ज्ञानस्वभाव द्वारा ध्रुव रहता है इसलिए स्वयं ही अपादान है; अपने में ही अर्थात् अपने ही आधार से केवलज्ञान करता है इसलिए स्वयं ही अधिकरण है। इसप्रकार स्वयं छह कारकरूप होने से यह आत्मा "स्वयंभू" कहलाता है....." प्रश्न ५. (ए) क्या चार घातिया कर्मों के नाश से केवलज्ञान हुआ ?
अथवा (बी) वज्रवृषभ नाराच संहनन (मजबूत शरीर) से केवलज्ञान हुआ ?
अथवा