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षट्कारक अनुशीलन इनके ज्ञान का कर्त्ता अवश्य है, पर इनका कर्ता नहीं; क्योंकि इनका ज्ञान आत्मा का ही परिणाम है, इस कारण आत्मा इनके ज्ञान का कर्त्ता है।
इसी बात को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"राग का परिणाम जीव का कर्म नहीं है। जीव में जो राग का परिणाम होता है, उससमय राग को जाननेवाला जो ज्ञान है, उस ज्ञान के परिणाम का कर्त्ता जीव है और राग को जाननेवाला वह ज्ञान जीव का कर्म है ।
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रागसंबंधी ज्ञान, राग को जाननेवाली आत्मा की ज्ञानपर्याय, आत्मा का स्व पर प्रकाशक स्वभाव होने से आत्मा का कर्म है तथा राग को जाननेवाली ज्ञानपर्याय का आत्मा कर्त्ता है ।
जिस परद्रव्य या परभाव का ज्ञान होता है, वह परद्रव्य या परभाव आत्मा का कर्म नहीं हो सकता, बल्कि उस परद्रव्य या परभाव का ज्ञान आत्मा का कर्म (कार्य) होता है और आत्मा उस ज्ञान का कर्ता होता है।
भगवान आत्मा स्व पर प्रकाशकज्ञानशक्ति का पिण्ड है। वह स्वयं कर्त्ता होकर स्व-पर को प्रकाशित करता है। पर को प्रकाशित करने में भी आत्मा को पर की अपेक्षा नहीं है। राग का परिणाम या व्यवहार का परिणाम हुआ, इसकारण राग या व्यवहार का ज्ञान हुआ ऐसी अपेक्षा या पराधीनता ज्ञान के परिणाम को नहीं है।"
इसप्रकार यह अत्यन्त स्पष्ट है कि अपनी स्व-पर प्रकाशक शक्ति के कारण ही यह भगवान आत्मा पर को और रागादि भावों को जानता है और यह जानना उसका कर्म है एवं उस जाननेरूप कर्म का वह कर्त्ता है।
मूलतः प्रश्न तो यह था कि यह आत्मा ज्ञानी हो गया - यह कैसे पहिचाना जाय? इसके उत्तर में गाथा में कहा गया था कि कर्म और नोकर्म के परिणाम को जो करता नहीं है, मात्र जानता है, वह आत्मा ज्ञानी है।
प्रश्न -क्या मात्र इतना जान लेने से ही आत्मा के अनुभव बिना ही जीव ज्ञानी हो जाता है ?
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व्यवहार षट्कारक
उत्तर - आत्मानुभव के बिना तो कोई ज्ञानी हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र जैसा विस्तार न देते हुए भी यह उल्लेख अवश्य करते हैं कि जिसप्रकार घट का उपादानकर्त्ता मिट्टी है, उसीप्रकार कर्म और नोकर्म के परिणाम का उपादान कर्ता पुद्गल द्रव्य है आत्मा उसका उपादान कर्ता नहीं है। इसप्रकार जो जानता है, वह निश्चय शुद्ध आत्मा का परमसमाधि के बल से अनुभव करता हुआ ज्ञानी होता है।
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इस कथन में इस बात को एकदम उजागर कर दिया गया है कि यह आत्मा शुद्धात्मा का अनुभव करता हुआ ही ज्ञानी होता है। इससे स्पष्ट ही है कि आत्मानुभव के बिना जीव ज्ञानी नहीं होता ।
इस गाथा के बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में एक गाथा आती है, जो आचार्य अमृतचन्द्र कृत आत्मख्याति में नहीं है, उसमें भी ज्ञानी को ही परिभाषित किया गया है। वह गाथा मूलतः इसप्रकार है -
कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण । धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।
इस गाथा का अर्थ आचार्य जयसेन स्वयं इसप्रकार करते हैं"यह आत्मा पुण्य-पापादि विकारी भावों का कर्त्ता भी है और अकर्त्ता भी है । यह सब नयविभाग से है; क्योंकि निश्चयनय से अकर्त्ता है और व्यवहारनय से कर्त्ता है। इसप्रकार ख्याति - लाभ - पूजादि समस्त रागादि विकल्पमय औपाधिक परिणामों से रहित समाधि में स्थित होकर जो जानता है, वह ज्ञानी होता है।"
इसमें भी यही कहा है कि समस्त रागादि भावों से रहित समाधि में स्थित होकर जो जानता है, वह ज्ञानी है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि आत्मानुभव के बिना जीव ज्ञानी नहीं होता ।
७५वीं गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने इस बात को विस्तार से स्पष्ट किया है कि कर्त्ता कर्मभाव वहाँ ही बनता है, जहाँ व्याप्यव्यापकभाव