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यह चेतना दर्शन सदा सामान्य अवलोकन करे। पर ज्ञान जाने सब विशेषों को तदपि निज में रहे ।। अस्तित्व ही ना रहे इनके बिना चेतन द्रव्य का। चेतना के बिना चेतन द्रव्य का अस्तित्व क्या ? चेतन नहीं बिन चेतना चेतन बिना ना चेतना। बस इसलिए हे आत्मन् ! इनमें सदा ही चेत ना ।।१८३।।
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(हरिगीत) जो सापराधी निरन्तर वे कर्मबंधन कर रहे। जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें।। अशुद्ध जाने आतमा को सापराधी जन सदा। शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा ।।१८७।। अरे मुक्तिमार्ग में चापल्य अर परमाद को। है नहीं कोई जगह कोई और आलंबन नहीं।। बस इसलिए ही जबतलक आनन्दघन निज आतमा। की प्रप्ति न हो तबतलक तुम नित्य ध्यावो आतमा ।।१८८।।
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(दोहा) चिन्मय चेतनभाव हैं पर हैं पर के भाव । उपादेय चिद्भाव हैं हेय सभी परभाव ।।१८४।।
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(हरिगीत) मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ। सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन ।। जो विविध परभाव मुझमें दिखें वे मुझ से पृथक् । वे मैं नहीं हूँ क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य हैं ।।१८५।।
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(रोला) प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो,
अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को।। अरे प्रमादी लोग आधो-अध: क्यों जाते हैं ?
इस प्रमाद को त्याग उर्ध्व में क्यों नहीं जाते ? ||१८९।। कषायभाव से आलस करना ही प्रमाद है,
यह प्रमाद का भाव शुद्ध कैसे हो सकता? निजरस से परिपूर्ण भाव में अचल रहें जो,
अल्पकाल में वे मुनिवर ही बंधमुक्त हों।।१९०।।
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(दोहा) परग्राही अपराधिजन बाँधे कर्म सदीव । स्व में ही संवृत्त जो वे ना बंधे कदीव ।।१८६।।
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