________________
वांच्छारहित जो प्रवर्त्तन वह बंध विरहित जानिये । जानना करना परस्पर विरोधी ही मानिये ।। १६६ ।। जो ज्ञानीजन हैं जानते वे कभी भी करते नहीं । करना तो है बस राग ही जो करें वे जाने नहीं ।। अज्ञानमय यह राग तो है भाव अध्यवसान ही । बंधकारण कहे ये अज्ञानियों के भाव ही ।। १६७ ।। जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख सब प्राणियोंकेसदा ही । अपने कर्म के उदय के अनुसार ही हों नियम से ।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख । विविध भूलों से भरी यह मान्यता अज्ञान है ।। १६८ ।।
( ८२ )
करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख । मानते हैं जो पुरुष अज्ञानमय इस बात को । कर्तृत्व रस से लबालब हैं अहंकारी वे पुरुष । भव-भव भ्रमें मिथ्यामती अर आत्मघाती वे पुरुष ।। १६९ ।।
(दोहा)
विविध कर्म बंधन करें जो मिथ्याध्यवसाय । मिथ्यामति निशदिन करें वे मिथ्याध्यवसाय ।।१७० ।। निष्फल अध्यवसान में मोहित हो यह जीव । सर्वरूप निज को करे जाने सब निजरूप ।। १७१ ।।
( ८३ )
(रोला)
यद्यपि चेतन पूर्ण विश्व से भिन्न सदा है, फिर भी निज को करे विश्वमय जिसके कारण । मोहमूल वह अधवसाय ही जिसके न हो, परमप्रतापी दृष्टिवंत वे ही मुनिवर हैं ।। १७२ ।। ( आडिल्ल )
सब ही अध्यवसान त्यागने योग्य हैं.
यह जो बात विशेष जिनेश्वर ने कही । इसका तो स्पष्ट अर्थ यह जानिये;
अन्याश्रित व्यवहार त्यागने योग्य है ।। ( ८४ )
परमशुद्धनिश्चयनय का जो ज्ञेय है,
शुद्ध निजातमराम एक ही ध्येय है। यदि ऐसी है बात तो मुनिजन क्यों नहीं,
शुद्धज्ञानघन आतम में निश्चल रहें ।। १७३ | (सोरठा)
कहे जिनागम माँहि शुद्धातम से भिन्न जो । रागादिक परिणाम कर्मबंध के हेतु वे ।। यहाँ प्रश्न अब एक उन रागादिक भाव का।
यह आतम या अन्य कौन हेतु है अब कहैं ।। १७४ । ।
(4)