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( हरिगीत ) हम जिन्हें चाहें अरे उनका भोग हो सकता नहीं। क्योंकि पल-पल प्रलय पावें वेद्य-वेदक भाव सब ।। बस इसलिए सबके प्रति अति ही विरक्त रहें सदा । चाहें न कुछ भी जगत में निजतत्त्वविद विद्वानजन ।। १४७ ।।
जबतक कषायित न करें सर्वांग फिटकरि आदि से। तबतलक सूती वस्त्र पर सर्वांग रंग चढ़ता नहीं ।। बस उसतरह ही रागरस से रिक्त सम्यग्ज्ञानिजन । सब कर्म करते पर परीग्रहभाव को ना प्राप्त हों ।। १४८ ।। ( ७४ )
रागरस से रहित ज्ञानी जीव इस भूलोक में । कर्मस्थ हों पर कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ।। १४९ ।। स्वयं ही हों परिणमित स्वाधीन हैं सब वस्तुयें ।
अर अन्य के द्वारा कभी वे नहीं बदली जा सकें ।। जिम परजनित अपराध से बंधते नहीं जन जगत में। तिम भोग भोगें किन्तु ज्ञानीजन कभी बंधते नहीं ।। १५० ।। कर्म करना ज्ञानियों को उचित हो सकता नहीं । फिर भी भोगासक्त जो दुर्भुक्त ही वे जानिये ।। हो भोगने से बंध ना पर भोगने के भाव से । तो बंध है बस इसलिए निज आतमा में रत रहो । । १५१ । ।
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तू भोग मुझको ना कहे यह कर्म निज करतार को । फलाभिलाषी जीव ही नित कर्मफल को भोगता ।। फलाभिलाषाविरत मुनिजन ज्ञानमय वर्तन करें। सब कर्म करते हुए भी वे कर्मबंधन ना करें ।। १५२ ।। जिसे फल की चाह ना वह करे - यह जंचता नहीं । यदि विवशता वश आ पड़े तो बात ही कुछ और है ।। अकंप ज्ञानस्वभाव में थिर रहें जो वे ज्ञानिजन । सब कर्म करते या नहीं यह कौन जाने विज्ञजन ।। १५३ ।। वज्र का हो पात जो त्रैलोक्य को विह्वल करे । फिर भी अरे अतिसाहसी सद्दृष्टिजन निश्चल रहें । (७६)
निश्चल रहें निर्भय रहें निशंक निज में ही रहें । निसर्ग ही निजबोधवपु निज बोध से अच्युत रहें ।। १५४ ।। इहलोक अर परलोक से मेरा न कुछ सम्बन्ध है । अभिन्न पर से एक यह चिल्लोक ही मम लोक है । जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे ।
वे तो सतत निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।। १५५ ।। चूंकि एक अभेद में ही वेद्य-वेदक भाव हों । अतएव ज्ञानी नित्य ही निजज्ञान का अनुभव करें ।। अन वेदना कोइ है नहीं तब होंय क्यों भयभीत वे ।
वे तो सतत् निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।। १५६ । ।
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