SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ F--- -- --- -- --- --- -- --- -- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - r -- - - -- - - - - -- - - -- - - च्युत हुए जो शुद्धनय से बोध विरहित जीव वे। पहले बंधे द्रव्यकर्म से रागादि में उपयुक्त हो ।। अरे विचित्र विकल्प वाले और विविध प्रकार के। विपरीतता से भरे विध-विध कर्म का बंधन करें ।।१२१।। इस कथन का है सार यह कि शुद्धनय उपादेय है। अर शुद्धनय द्वारा निरूपित आत्मा ही ध्येय है।। क्योंकि इसके त्याग से ही बंध और अशान्ति है। इसके ग्रहण में आत्मा की मुक्ति एवं शान्ति है।।१२२।। - - -- संवराधिकार (हरिगीत) संवरजयी मदमत्त आम्रवभाव का अपलाप कर। व्यावृत्य हो पररूप से सदबोध संवर भास्कर ।। प्रगटा परम आनन्दमय निज आत्म के आधार से। सद्ज्ञानमय उज्ज्वल धवल परिपूर्ण निजरसभारसे ।।१२५।। यह ज्ञान है चिद्रूप किन्तु राग तो जड़रूप है। मैं ज्ञानमय आनन्दमय पर राग तो पररूप है।। इसतरह के अभ्यास से जब भेदज्ञान उदित हुआ। आनन्दमय रसपान से तब मनोभाव मुदित हुआ।।१२६।। - - - - -- - - - - - - - -- - - - --- ______ - - - - - - - - _---------- - - - - - - - - - - - -- - - - - - - - -- - - - - धीर और उदार महिमायुत अनादि-अनंत जो। उस ज्ञान में थिरता करे अर कर्मनाशक भाव जो।। सद्ज्ञानियों को कभी भी वह शुद्धनय ना हेय है। विज्ञानघन इक अचल आतम ज्ञानियों का ज्ञेय है।।१२३।। निज आतमा जो परमवस्तु उसे जो पहिचानते । अर उसी में जो नित रमें अर उसे ही जो जानते ।। वे आस्रवों का नाश कर नित रहें आतम ध्यान में। वे रहें निज में किन्तु लोकालोक उनके ज्ञान में ।।१२४।। - (रोला) भेदज्ञान के इस अविरल धारा प्रवाह से। कैसे भी कर प्राप्त करे जो शुद्धातम को।। और निरन्तर उसमें ही थिर होता जावे। पर परिणति को त्याग निरंतर शुध हो जावे ।।१२७ ।। भेदज्ञान की शक्ति से निजमहिमा रत को। शुद्धतत्त्व की उपलब्धि निश्चित हो जावे।। शुद्धतत्त्व की उपलब्धि होने पर उसके। अतिशीघ्र ही सब कर्मों का क्षय हो जावे ।।१२८।। - - -- - - - -- - - - - - -- - - - - - - - __(६५)____ ------__(६३) - - - - - - - - --
SR No.008378
Book TitleSamaysara kalash Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size228 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy