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________________ पूर्वरंग तब भाव्य-भावक भाव का अभाव होने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण परमात्मा को प्राप्त हुआ वह आत्मा क्षीणमोहजिन कहलाता है। - यह तीसरी निश्चयस्तुति है। गाथाओं में जहाँ 'मोह' पद का प्रयोग हुआ है; उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय शब्दों को रखकर ग्यारह-ग्यारह गाथायें बनाकर; उनका भी इसीप्रकार व्याख्यान करना तथा कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - इन पाँच इन्द्रियों को भी 'मोह' पद के स्थान पर रखकर इन्द्रियसूत्र के रूप में पाँच-पाँच गाथायें पृथक् से बनाना और उनका भी पूर्ववत् व्याख्यान करना। प्रुणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।।३२-३३ ।। (शार्दूलविक्रीडित) एकत्वं व्यवहारतो न तु पुन: कायात्मनोनिश्चयान्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः। स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवेनातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः ।।२७।। (मालिनी) इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां नयविभजनयुक्त्याऽत्यंतमुच्छादितायाम्। अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ।।२८।। इसप्रकार इन गाथाओं के अनुसार १६-१६ गाथायें बनाकर विस्तार से व्याख्यान करना। इसीप्रकार इन १६-१६ सूत्रों के अलावा भी विचार कर लेना।" इसप्रकार २६वीं गाथा में आरम्भ हुआ स्तुति का प्रकरण निश्चय-व्यवहार स्तुति की विस्तृत व्याख्या के उपरान्त समाप्त होता है। अत: आचार्य अमृतचन्द्र इस प्रकरण के उपसंहाररूप में दो कलश काव्य लिखते हैं; जिनमें सम्पूर्ण वस्तु का उपसंहार करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। कलशों का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से। यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से ।। परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन । परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यघन ।।२७।। इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से। निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने ।। यदि भावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्बोध हो। भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियमसेसद्बोध हो।।२८।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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