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समयसार उस साधु को निश्चयनय के जानकार क्षीणमोह कहते हैं। ___ यह दूसरी व तीसरी निश्चयस्तुति का कथन है। दूसरी स्तुति भाव्य-भावकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होती है और तीसरी स्तुति भाव्य-भावक भाव के अभावपूर्वक होती है। ___ पहले प्रकार की निश्चयस्तुति को जघन्य निश्चयस्तुति, दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति को मध्यम निश्चयस्तुति और तीसरे प्रकार की निश्चयस्तुति को उत्कृष्ट निश्चयस्तुति भी कहते हैं। __ यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यावर्तनेन हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसंकरदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवांत:प्रकाशमानेनानपायिना स्वत:सिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यांतरस्वभावभाविभ्यः सर्वेभ्यो भावांतरेभ्य: परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः।
अथ भाव्यभावकभावाभावेन - इह खलु पूर्वप्रक्रांतेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदित-ज्ञानस्वभावातिरिक्तात्मसंचेतनेन जितमोहस्य सतो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टंभात्तत्संताना-त्यंतविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं परमात्मानमवाप्त: क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः। ___एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायसूत्राण्येकादशपंचानां श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणामिंद्रियसूत्रेण पृथग्व्याख्यातत्वाद्व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षु
जिन तीन प्रकार के होते हैं - (१) जितेन्द्रियजिन, (२) जितमोहजिन और (३) क्षीणमोहजिन ।
जितमोहजिन और क्षीणमोहजिन के स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली इन गाथाओं के भाव को आत्मख्याति टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जो मुनि फल देने की सामर्थ्य से उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होते हुए मोहकर्म के अनुसार प्रवृत्तिवाले भाव्यरूप अपने आत्मा को भेदज्ञान के बल से दूर से ही अलग करके - इसप्रकार मोह का बलपूर्वक तिरस्कार करके, समस्त भाव्य-भावकसंकर दोष दूर करके एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए, प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अन्तरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वत:सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञानस्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्यद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितमोहजिन हैं - यह दूसरी निश्चयस्तुति है।
पूर्वोक्त विधान से आत्मा में से मोह का तिरस्कार करके, पूर्वोक्त ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यों से भिन्न आत्मा का अनुभव करने से जो आत्मा जितमोह हुआ है; जब वही आत्मा अपने स्वभाव की भावना का भलीभाँति अवलम्बन करके मोह की सन्तति का ऐसा आत्यन्तिक विनाश करता है कि फिर उसका उदय ही न हो - इसप्रकार भावकरूप मोह पूर्णतः क्षीण हो;