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समयसार अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन के बल से अपने से सर्वथा अलग करना अर्थात् सर्वथा भिन्न जानना - यह तो द्रव्येन्द्रियों का जीतना हआ।
भिन्न-भिन्न अपने विषयों में व्यापार से जो विषयों को खण्ड-खण्ड ग्रहण करती हैं, ज्ञान को खण्ड-खण्डरूप बतलाती हैं; ऐसी भावेन्द्रियों को, प्रतीति में आती हई अखण्ड एक चैतन्यशक्ति के द्वारा अपने से सर्वथा भिन्न करना अर्थात् भिन्न जानना - यह भावेन्द्रियों का जीतना हुआ। ग्राहकलक्षणसंबंधप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छक्तेः स्वयमेवानुभूयमानासंगतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिद्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंकरदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवांत:प्रकाशमानेनानपायिना स्वत:सिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यांतरेभ्य: परमार्थतोतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः ।।३१।।
ग्राह्य-ग्राहकलक्षणवाले सम्बन्ध की निकटता के कारण अपने संवेदन के साथ एक जैसे दिखाई देनेवाले भावेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्शादि पदार्थों को अपनी चैतन्यशक्ति से स्वयमेव अनुभव में आनेवाली असंगता के द्वारा अपने से सर्वथा अलग करना अर्थात् सर्वथा अलग जानना - यह इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का जीतना हुआ।
इसप्रकार द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और उनके विषयभूत पदार्थों को जीतकर ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष दूर होने से; एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अन्तरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वत:सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञानस्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का जो अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितेन्द्रियजिन हैं।"
हाँ, तो इसप्रकार शरीर परिणाम को प्राप्त स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और उपचार से मन भी - ये द्रव्येन्द्रियाँ, इनके माध्यम से जाननेवाली ज्ञान की क्षयोपशमदशा रूप भावेन्द्रियाँ और इनके माध्यम से ज्ञात होनेवाले बाह्य ज्ञेय पदार्थ - इन सभी का एक नाम 'इन्द्रिय' है।
अज्ञानीजीव अनादि से इन इन्द्रियों को आत्मा जानता रहा है, इनमें ही अपनापन स्थापित किये रहा है, इन्हीं में जमा-रमा रहा है; यही इसकी इन्द्रियाधीनता है। ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा इन इन्द्रियों से अत्यन्त भिन्न है, एकत्व में टंकोत्कीर्ण है, अविनश्वर है, प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अन्तर में प्रकाशमान है, स्वत:सिद्ध एवं परमार्थस्वरूप है - यह जानकर, अनुभवपूर्वक जानकर; उस भगवान आत्मा में ही अपनापन हो जाना, उसमें ही जम जाना, रम जाना इन्द्रियों को जीतना है।
इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ तो ज्ञेय हैं ही, द्रव्येन्द्रियाँ भी ज्ञेय ही हैं। यहाँ तो यह भी कहा जा रहा है कि क्षयोपशमज्ञानरूप भावेन्द्रियाँ भी ज्ञेय ही हैं। ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा इन सभी से भिन्न है। यह न जानकर इन्द्रियों को ज्ञायक जानना और इन्द्रियों के विषयों को ज्ञेय जानना और ज्ञायक को जानना ही नहीं - ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का एक प्रकार तो यह है और दूसरे ज्ञायक