SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वरंग स्तुति माना ही है। हाँ, निश्चयनय से, परमार्थ से अवश्य अस्वीकार किया है और वह सबप्रकार से ठीक ही है; क्योंकि निश्चय से तो शरीर के गुण आत्मा के गुण हो ही नहीं सकते। अत: निश्चय से शरीर के आधार पर की गई स्तुति को तीर्थंकर केवली की स्तुति कैसे माना जा सकता है ? इस सम्पूर्ण प्रकरण में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह प्रकरण भेदविज्ञान का है, देह से एकत्व के व्यामोह को छुड़ाने का है; स्तुति की चर्चा तो बीच में उदाहरण के रूप में आ गई है; शिष्य के प्रश्न के आधार पर आई है और नयविभाग के आधार पर उसका समाधान कर दिया गया है। अथ निश्चयस्तुतिमाह । तत्र ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषपरिहारेण तावत् - जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ॥३१॥ य इंद्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकंजानात्यात्मानम् । तंखलु जितेन्द्रियं ते भणन्ति ये निश्चिताःसाधवः ।।३१।। यः खलु निरवधिबंधपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तस्वपरविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौशलोपलब्धांत:स्फुटातिसूक्ष्मचित्स्वभावावष्टंभबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येन्द्रियाणि प्रतिविशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खंडश: आकर्षति प्रतीयमानाखंडैकचिच्छक्तितया भावेंद्रियाणि ग्राह्य यद्यपि स्तति साहित्य में देह को आधार बनाकर तीर्थंकर भगवान का अपरिमित गुणानुवाद किया गया है, तथापि यह बात भी हाथ पर रखे आँवले के समान स्पष्ट है कि देह और आत्मा परमार्थत: भिन्न-भिन्न ही हैं। अत: देह के आधार पर की गई स्तुति मात्र उपचार ही है, व्यवहार ही है; उसके आधार पर देह और आत्मा को एक मानने की बात करना नयविभाग के अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अरे भाई, जिनागम का प्रत्येक वाक्य नय की भाषा में ही निबद्ध है। अत: जिनागम का मर्म समझने के लिए नयविभाग जानना अत्यन्त आवश्यक है। अब प्रश्न उठता है कि यदि यह व्यवहारस्तुति है तो निश्चयस्तुति क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तर में ३१-३२-३३वीं गाथाओं का जन्म हुआ है; जिनमें प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति का स्वरूप बतानेवाली ३१वीं गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा ।।३१।। जो इन्द्रियों को जीतकर आत्मा को अन्य द्रव्यों से अधिक (भिन्न) जानते हैं; वे वस्तुतः जितेन्द्रिय हैं - ऐसा निश्चयनय में स्थित साधुजन कहते हैं। इस गाथा पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखी गई आत्मख्याति टीका का भाव मूलत: इसप्रकार है - “अनादि अमर्याद बंध पर्याय के वश, जिनमें समस्त स्व-पर का विभाग अस्त हो गया है अर्थात् जो आत्मा के साथ एकमेक हो रही है कि जिससे भेद दिखाई नहीं देता; ऐसी शरीर परिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियों को निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अन्तरंग में प्रगट
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy