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समयसार
अर्थ ही लिखा है, विशेष कुछ नहीं कहा है। उन्होंने इनके बारे में जो कुछ कहा है, उसका सार इसप्रकार है - ननु कथमयमप्रतिबुद्धो लक्ष्येत -
अहमेदं एदमहं अहमेदस्स म्हि अत्थि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ।।२०।। आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि । होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि ।।२१।। एयं तु असब्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो। भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ।।२२।।
अहमेतदेतदहं अहमेतस्यास्मि अस्ति ममैतत् ।
अन्यद्यत्परद्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्रं वा ।।२०।। “शुद्धजीव में उपयोग तन्मय हुआ, उपादेयबुद्धि (अपनत्वबुद्धि) से परिणत हुआ तो मोक्ष होता है और देहादिक अजीव में उपयोग तन्मय हुआ, उपादेयबुद्धि (अपनत्वबुद्धि) से परिणत हुआ तो बंध होता है - ऐसा संक्षेप में सर्वज्ञ भगवान ने कहा है। इसलिए सहजानन्दस्वभावी निजात्मा में रति करना चाहिए और परद्रव्य में रति नहीं करना चाहिए। ____ यह आत्मा अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्धभावों का और शुद्धनिश्चयनय से शुद्धभावों का कर्ता है तथा अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है। अत: संसार से भयभीत मुमुक्षुओं के द्वारा रागादि से रहित निज शुद्धात्मा की भावना करना चाहिए।"
सबकुछ मिलाकर सार यह है कि देहादि पर-पदार्थों से एकत्व, ममत्व छोड़कर, उनके कर्तृत्व से भी मुख मोड़कर निज शुद्धात्मा की आराधना करना ही श्रेयस्कर है।
दूसरी गाथा की प्रथम पंक्ति कर्ता-कर्म अधिकार में दो स्थानों पर हूबह प्राप्त होती है। आत्मख्याति के अनुसार उनकी क्रम संख्या ९१ एवं १२६ है और तात्पर्यवृत्ति के अनुसार उनकी क्रम संख्या क्रमश: ९८ एवं १३४ है। उक्त गाथा में जो विषयवस्तु है, वह भी कर्ता-कर्म भाव से सम्बन्धित है; अत: इस पर विस्तृत मीमांसा कर्ता-कर्म अधिकार में करना ही उचित प्रतीत होता है।
आगामी गाथाओं की सन्धि भी १९वीं गाथा से ही मिलती है। १९वीं गाथा में यह कहा था कि जबतक यह आत्मा कर्म और नोकर्म में एकत्व-ममत्व रखेगा; तबतक अप्रतिबुद्ध रहेगा, अज्ञानी रहेगा; अत: अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि हम कैसे पहिचानें कि यह व्यक्ति अप्र अज्ञानी है ? तात्पर्य यह है कि अज्ञानी की पहिचान के चिह्न क्या हैं ?
इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप आगामी २० से २२ तक की गाथायें लिखी गई हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत )
प्रातबद्धह,