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पूर्वरंग
ज्ञेयों के आकार प्रतिभासित होते हैं, उनसे रागादि विकार को प्राप्त नहीं होते ।
उक्त कलश में मूलत: तो टीका की बात को ही कहा है, फिर भी इसमें दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात तो यह है कि अनुभूति को भेदज्ञानमूलक कहा है और दूसरी यह कि आत्मा के ज्ञानदर्पण में अनन्तपदार्थ झलकें, पर उससे ज्ञानी आत्मविकार को प्राप्त नहीं होते ।
जिसप्रकार अग्नि के प्रतिबिम्बित होने से दर्पण गर्म नहीं होता, उसीप्रकार रागादि के ज्ञेय बनने से आत्मा रागादिरूप परिणमित नहीं होता ।
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दूसरी बात यह है कि परपदार्थों के जानने से न तो लाभ है और न हानि ही है। उनके नहीं जानने से तो हमारा कुछ बिगड़नेवाला है ही नहीं; परन्तु अपने ज्ञान में उनके ज्ञेय बनने से भी कुछ बिगड़नेवाला नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार दर्पण में अनन्त पदार्थ झलकते हैं, पर उससे दर्पण विकृत नहीं होता; उसीप्रकार अनन्त ज्ञेयों के जानने से भी ही हमारा ज्ञानदर्पण विकृत होनेवाला नहीं है। बिगड़ता तो उन्हें अपना जानने से है, अपना मानने से है, उनमें ही जमने - रमने से है, उनका ही ध्यान करने से है। अकेले जाननेमात्र से कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं है । अत: न उन्हें जानने का हठ करना चाहिए और न नहीं जानने का भी हठ करना चाहिए। सहजभाव से जैसे जो ज्ञात हो जाये, हो जाने दें; न होवे तो न होने दें; उनके प्रति सहज भाव धारण करना ही श्रेयस्कर है।
इस कलश में इन्हीं दो बातों पर वजन दिया गया |
इसके बाद दो गाथायें आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में प्राप्त होती हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति में नहीं हैं । वे दोनों गाथायें इसप्रकार हैं।
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जीवे व अजीवे वा संपदि समयम्हि जत्थ उवजुत्तो । तत्थेव बंध मोक्खो होदि समासेण णिद्दिट्ठो ।। ( हरिगीत )
अपनेपने से जीव जाने मोक्ष और अजीव को । अपनेपने से जानने से बंध होता सभी को ।।
जब जीव में तन्मयता से उपयोग लगता है तो मोक्ष होता है और अजीव में तन्मयता से उपयोग लगता है तो बंध होता है। बंध और मोक्ष की संक्षेप में यही प्रक्रिया है ।
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स णिच्छयदो ववहारा पोग्गलकम्माण कत्तारं ॥
( हरिगीत )
नियतनय से जिय करे जिस भाव को उस भाव का। किन्तु नय व्यवहार से कर्ता है पुद्गल कर्म का ।।
निश्चयनय से आत्मा जिस भाव को करता है, उसी भाव का कर्ता होता है और व्यवहारनय से पुद्गलकर्म का कर्ता होता है।
आचार्य अमृतचन्द्र की टीका में तो ये गाथायें हैं ही नहीं, आचार्य जयसेन ने भी इनका सामान्य