SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार उक्त कलशों में एकाकार-अनेकाकार, अमेचक-मेचक, निर्मल-मलिन, अभेद-भेद के सन्दर्भ में निश्चय, व्यवहार और प्रमाण का पक्ष प्रस्तुत करने के उपरान्त यह बताया गया है कि यह सब जान लेने के बाद इन्हीं विकल्पों में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं है। क्योंकि साध्य की सिद्धि जह णाम को वि पुरिसोरायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ।।१७।। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ।।१८।। यथा नाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति । ततस्तमनुचरति पुनरार्थिकः प्रयत्नेन ।।१७।। एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः। अनुचरितव्यश्च पुन: स चैव तु मोक्षकामेन ।।१८।। यथा हि कश्चित्पुरुषोऽर्थार्थी प्रयत्नेन प्रथममेव राजानं जानीते ततस्तमेव श्रद्धत्ते ततस्तमेवाअतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति इन विकल्पों से प्राप्त होनेवाली नहीं है। साध्य की सिद्धि तो निश्चयनय (परमशद्धनिश्चयनय) के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से ही होनेवाली है अथवा इसी आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से ही होनेवाली है। देखो, गंभीरता से विचारने की बात यह है कि यहाँ दर्शन, ज्ञान और चारित्र के भेद को भी मलिनता कहा जा रहा है, अनेकाकार होने से मेचक कहा जा रहा है। जहाँ शुद्धनय के विषय में दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भेद को भी मलिनता कहा जा रहा हो, वहाँ रागादिक मलिनता की तो बात ही क्या करें ? अब आगामी १७-१८वीं गाथाओं में उसी बात को उदाहरण से समझाकर स्पष्ट करते हैं, जिसकी चर्चा १६वीं गाथा में की गई है। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) 'यह नृपति है' - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ।।१७।। यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए। अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए।।१८।। जिसप्रकार कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर उसकी श्रद्धा करता है और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, उसकी लगन से सेवा करता है; ठीक उसीप्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुषों को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए और फिर उसका श्रद्धान करना चाहिए, उसके बाद उसी का अनुचरण करना चाहिए; अर्थात् अनुभव के द्वारा उसमें तन्मय हो जाना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy