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पूर्वरंग __यदि प्रमाण दृष्टि से देखें तो यह आत्मा एक ही साथ अनेक अवस्थारूप मेचक भी है और एक अवस्थारूप अमेचक भी है; क्योंकि इस आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्र से तीनपनाअनेकपना प्राप्त है और यह स्वयं से एक है।
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः। एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेण मेचकः ।।१७।। परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः । सर्वभावांतर-ध्वंसि-स्वभावत्वाद-मेचकः ॥१८॥
आत्मनश्चिंतयैवालं मेचकामेचकत्वयोः । दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ।।१९।। आतमा है एक यद्यपि किन्तु नय व्यवहार से। त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ।। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में। अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में ।।१७।। आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से। किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से ।। है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से। है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से।।१८।। मेचक-अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या। बस करो अब तो इन विकल्पों से तुम्हें है साध्य क्या ।। हो साध्यसिद्धि एक बस सद्ज्ञानदर्शनचरण से।
पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचें संसरण से ।।१९।। यद्यपि यह आत्मा एक है, तथापि व्यवहारदृष्टि से देखा जाये तो त्रिस्वभावरूपता के कारण अनेक है, अनेकाकार है, मेचक है; क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीन भावोंरूप परिणमन करता है।
यद्यपि व्यवहारनय से आत्मा अनेकरूप कहा गया है, तथापि परमार्थ से विचार करें तो शुद्धनिश्चयनय से देखें तो प्रगट ज्ञायकज्योतिमात्र से आत्मा एक ही है, एकस्वरूप ही है; क्योंकि सर्व अन्यद्रव्यों के स्वभाव तथा उनके निमित्त से होनेवाले अपने विभाव भावों को दूर करने का उसका स्वभाव है। इसलिए वह परमार्थ से शुद्ध है, एकाकार है, अमेचक है।
यह आत्मा मेचक है, भेदरूप अनेकाकार है, मलिन है; अथवा अमेचक है, अभेदरूप एकाकार है, शुद्ध है, निर्मल है- ऐसी चिन्ता से बस हो, इसप्रकार के अधिक विकल्पों से कोई लाभ नहीं है; क्योंकि साध्य आत्मा की सिद्धि तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन भावों से ही होती है, अन्यप्रकार से नहीं। - यह नियम है।