SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०४ समयसार के सभी संबंधों के निषेध के लिए कही गई है। पर से संबंध के निषेध पर बल देने के लिए स्वयं में ही स्व-स्वामी संबंध बताया गया है। (वसंततिलका) इत्याद्यनेक-निजशक्ति-सुनिर्भरोऽपि यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः। एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं तद्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ।।२६४।। यहाँ यह समझना चाहिए कि मैं ही स्वामी और मैं ही स्व (सम्पत्ति) - इसका आशय यही है कि यहाँ स्व-स्वामी संबंध की कोई गुंजाइश नहीं है। इसी बात पर बल देने के लिए कि मेरा कोई स्वामी नहीं है, मैं किसी की सम्पत्ति नहीं हूँ और मैं भी किसी का स्वामी नहीं हूँ और कोई मेरी सम्पत्ति नहीं है; इसलिए यह कहा गया है कि मैं ही स्वामी और मैं ही स्व (सम्पत्ति)। यह न केवल संबंधशक्ति के बारे में समझना; अपितु सभी कारकों संबंधी शक्तियों के बारे में समझना चाहिए; क्योंकि मैं ही कर्ता, मैं ही कर्म, मैं ही करण, मैं ही संप्रदान, मैं ही अपादान और मैं ही अधिकरण - इसका भी यही अर्थ हो सकता है कि मेरा कर्ता कोई अन्य नहीं, मेरा कर्म भी अन्य कोई नहीं। इसीप्रकार करणादि कारकों पर भी घटित कर लेना चाहिए। ___ अन्त में यही निष्कर्ष रहा कि मैं तो मैं ही हूँ, षट्कारक की प्रक्रिया से पार स्वयं में परिपूर्ण स्वतंत्र पदार्थ । यही कारण है कि इन शक्तियों के आत्मा में विद्यमान होने पर भी इनके लक्ष्य से निर्मल पर्याय प्रगट नहीं होती; अपितु इन शक्तियों के संग्रहालय अभेद-अखण्ड त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शनादि निर्मल पर्यायों का आरंभ होता है। इसप्रकार संबंधशक्ति की चर्चा के साथ-साथ ४७ शक्तियों की चर्चा भी समाप्त होती है। उक्त ४७ शक्तियों की चर्चा में दृष्टि के विषयभूत अनंत शक्तियों के संग्रहालय भगवान आत्मा का स्वरूप तो स्पष्ट हुआ ही है; साथ में उछलती हुई शक्तियों की बात कहकर; शक्तियों के उछलने की चर्चा करके, निर्मलपर्यायरूप से परिणमित होने की बात करके द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत द्रव्य की चर्चा के साथ-साथ पर्यायार्थिकनय के विषयभूत निर्मल परिणमन को भी स्वयं में समेट लिया है। इसप्रकार इस स्याद्वादाधिकार में द्रव्य-पर्यायात्मक अनेकान्तस्वरूप आत्मवस्तु को स्याद्वाद शैली में स्पष्ट किया गया है। इसप्रकार ४७ शक्तियों की चर्चा करने के तत्काल बाद आचार्यदेव दो छन्दों में इस प्रकरण का उपसंहार करते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) इत्यादिक अनेक शक्ति से भरी हई है। फिर भी ज्ञानमात्रमयता को नहीं छोड़ती।। हा
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy