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________________ ४० जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णयं f ण य द 1 अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि । । १४ ।। य: पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतम् । अविशेषमसंयुक्तं तं शुद्धनयं विजानीहि ।। १४ । । या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूति: स शुद्धनयः, सात्वनुभूतिरात्मैव । इत्यात्मैक एव प्रद्योतते । समयसार कथं यथोदितस्यात्मनोनुभूतिरिति चेद्बद्धस्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात् । तथा हि - यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः सलिलास्पृश्यं बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है। - ( हरिगीत ) अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को 1 संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ।। १४ । । जो नय आत्मा को बन्धरहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलतारहित, विशेषरहित एवं अन्य के संयोग से रहित देखता है, जानता है; हे शिष्य ! तू उसे शुद्धनय जान । तात्पर्य यह है कि शुद्धनय से भगवान आत्मा कर्मों से अबद्ध है, परपदार्थों ने इसे छुआ तक नहीं है । वह नर-नारकादि पर्यायों में रहते हुए भी अन्य अन्य नहीं होता, अनन्य ही रहता है तथा अपने स्वभाव में सदा नियत ही है, समस्त विशेषों में व्याप्त होने पर भी अविशेष ही रहता है तथा रागादि में संयुक्त नहीं होता । यह गाथा शुद्धनय के विषय को स्पष्ट करनेवाली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गाथा है । इस पर आचार्य अमृतचन्द्र ने जो टीका लिखी है, वह भी अत्यन्त गम्भीर है और उसका भाव इसप्रकार है - ८ 'अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा की अनुभूति शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार एक आत्मा ही प्रकाशमान है। शुद्धनय, आत्मा की अनुभूति या आत्मा सब एक ही है, अलग-अलग नहीं । प्रश्न- ऐसे आत्मा की अनुभूति कैसे हो सकती है ? उत्तर - बद्धस्पृष्टादिभावों के अभूतार्थ होने से यह अनुभूति हो सकती है । अब इसी बात को पाँच दृष्टान्तों के द्वारा विस्तार से स्पष्ट करते हैं - (१) जिसप्रकार जल में डूबे हुए कमलिनी पत्र का, जल से स्पर्शितपर्याय की ओर से अनुभव करने पर, देखने पर, जल से स्पर्शित होना भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य कमलिनी पत्र के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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