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________________ पूर्वरंग (उपजाति) आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यंतविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालंप्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ।।१०।। आगामी गाथा की उत्थानिकारूप में समागत १०वें कलश में भी शुद्धनय के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। उस कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अन्त विमुक्त है। संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है ।। जो एक है परिपूर्ण है - ऐसे निजात्मस्वभाव को। करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ।।१०।। परभावों से भिन्न, आदि-अन्त से रहित, परिपूर्ण, संकल्प-विकल्पों के जाल से रहित एक आत्मस्वभाव को प्रकाशित करता हुआ शुद्धनय उदय को प्राप्त होता है। ___ यहाँ परभाव में परद्रव्य, परद्रव्यों के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से प्रगट होनेवाले अपने विभावभाव - इन सभी को लिया गया है; क्योंकि परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत भगवान आत्मा इन सभी से भिन्न होता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्यों में अपनत्व स्थापित करना संकल्प है और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद ज्ञात होना विकल्प है। शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा इन संकल्पविकल्पों से रहित है, अनादि-अनन्त है, परिपूर्ण तत्त्व है। इसमें किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं है। इस कलश में जिस आत्मस्वभाव की चर्चा है और जिसे प्रकाशित करता हुआ शुद्धनय उदय को प्राप्त होता है, वही आत्मस्वभाव दृष्टि का विषय है, उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की प्राप्ति होती है। तेरहवीं गाथा में जिसे भूतार्थनय कहा गया था, उसे ही यहाँ शुद्धनय नाम से कहा जा रहा है। वहाँ भूतार्थनय से नवपदार्थों के जानने को सम्यग्दर्शन कहा गया था । यहाँ शुद्धनय से आत्मा के जानने को सम्यग्ज्ञान कहा जा रहा है। इस कलश में शुद्धनय के विषयभूत आत्मा के जो विशेषण दिये गये हैं, आगामी गाथा में भी लगभग वे ही विशेषण दिये हैं। अत: उनकी चर्चा तो विस्तार से वहाँ होगी ही, यहाँ उनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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