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स्याद्वादाधिकार
स्याद्वादो हि समस्तवस्तुतत्त्वसाधकमेकमस्खलितं शासनमर्हत्सर्वज्ञस्य । स तु सर्वमनेकांतात्म - कमित्यनुशास्ति, सर्वस्यापि वस्तुनोऽनेकांतस्वभावत्वात् । अत्र त्वात्मवस्तुनि ज्ञानमात्रतया अनुशास्यमानेऽपि न तत्परिकोप:, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकांतत्वात् ।
तत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकांतः ।
समयसार
यह परिशिष्ट दो भागों में विभक्त है - प्रथम भाग में वस्तु के अनेकान्तस्वभाव को सिद्ध करते हुए १४ प्रकार के एकान्तों का निषेध किया गया है - पहले गद्य में फिर पद्य में । तदुपरान्त आत्मवस्तु की उछलती हुई अनन्त शक्तियों में से ४७ शक्तियों का विशद विवेचन है ।
दूसरे भाग में उपाय - उपेयभाव का विवेचन किया गया है ।
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इसप्रकार प्रथम अधिकार का नाम है - स्याद्वादाधिकार और दूसरे का नाम है उपेयाधिकार (साध्य-साधकद्वार) ।
मंगलाचरण ( दोहा )
अध्यातम के जोर में, जो एकान्त अपार । निराकरण को कहा यह, स्याद्वाद अधिकार ।।
अब यहाँ स्याद्वाद का स्वरूप स्पष्ट करनेवाली आत्मख्याति टीका का भाव लिखते हैं
उपाय
स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करनेवाला सर्वज्ञ अरहंत भगवान का अस्खलित (निर्बाध ) शासन है । समस्त वस्तुयें अनेकान्त-स्वभावी होने से वह स्याद्वाद यह कहता है कि सब वस्तुयें अनेकान्तात्मक हैं ।
अब यहाँ यह सिद्ध करते हैं कि आत्मा नामक वस्तु को ज्ञानमात्र कहने पर भी स्याद्वाद का कोप नहीं है; क्योंकि ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के स्वयमेव अनेकान्तात्मकत्व (अनन्तधर्मात्मकपना) है ।
अनेकान्त का स्वरूप ऐसा है कि जो वस्तु तत्स्वरूप है, वही वस्तु अतत्स्वरूप भी है; जो वस्तु एक है, वही अनेक है; जो वस्तु सत् है, वही असत् है; जो नित्य है, वही अनित्य है इसप्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की निष्पादक (उपजानेवाली) परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है ।
इसलिए यद्यपि आत्मवस्तु ज्ञानमात्र है; तथापि उसमें उक्त तत्-अतत्पना आदि भी विद्यमान ही हैं; क्योंकि उक्त ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के अंतरंग में चकचकायमान ज्ञानस्वरूप से तत्पना और उसमें प्रकाशित होनेवाले अनंत पररूप ज्ञेयों के उससे भिन्न होने के कारण उनसे या उनकी अपेक्षा अतत्पना है ।