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________________ परिशिष्ट ( अनुष्टुभ् ) अत्र स्याद्वादशुद्धयर्थं वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः। उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिंत्यते ।।२४७।। मंगलाचरण (दोहा) वस्तु व्यवस्था तत्त्व की, भाव उपाय-उपेय। स्याद्वाद की सिद्धि को. थोडा-बहत प्रमेय ।। इसप्रकार यहाँ आचार्य कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित समयसार का अन्तिम अधिकार सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार भी पूर्ण हो जाता है तथा ४१५ गाथाओं की आत्मख्याति टीका और उसमें समागत २४६ कलश भी पूर्ण हो जाते हैं। इसके उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र परिशिष्ट के रूप में कुछ नया प्रमेय उपस्थित करते हुए कुछ छन्द एवं गद्य टीका लिखते हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा आत्मख्याति के परिशिष्ट में प्रस्तुत नये प्रमेय की सूचना देनेवाले २४७ वें कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ___ (कुण्डलिया ) यद्यपि सब कुछ आ गया, कुछ भी रहा न शेष । फिर भी इस परिशिष्ट में, सहज प्रमेय विशेष ।। सहज प्रमेय विशेष उपायोपेय भावमय। ज्ञानमात्र आतम समझाते स्याद्वाद से ।। परमव्यवस्था वस्तुतत्त्व की प्रस्तुत करके। परम ज्ञानमय परमातम का चिन्तन करते॥२४७॥ इस समयसार नामक परमागम में आत्मवस्तु का स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट हो जाने पर भी अब यहाँ स्याद्वाद की शुद्धि के लिए वस्तुतत्त्व की व्यवस्था और उपाय-उपेयभाव के संबंध में थोड़ा-बहुत चिन्तवन फिर से करते हैं। इस कलश में आचार्य अमृतचन्द्र अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि यद्यपि समयसार की ४१५ गाथाओं में आत्मवस्तु का स्वरूप अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा जा चुका है और उसकी टीका करते हुए मैंने भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर वह सब कुछ लिख दिया है, जो इस संदर्भ में लिखा जा सकता था; तथापि इस समयसार ग्रन्थाधिराज के स्वाध्याय करने से कुछ लोगों को ऐसी आशंका हो सकती है कि इसमें एकान्त से कथन है; क्योंकि इसमें आत्मा को सर्वत्र ही एक ज्ञानमात्र कहा गया है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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