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________________ ५४९ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ( हरिगीत ) क्या लाभ है ऐसे अनल्पविकल्पों के जाल से। बस एक ही है बात यह परमार्थ का अनुभव करो।। क्योंकि निजरसभरित परमानन्द के आधार से। कुछ भी नहीं है अधिक सुनलोइस समय के सारसे ।।२४४।। अधिक कहने से क्या लाभ है, अधिक दुर्विकल्प करने से भी क्या लाभ है; यहाँ तो मात्र इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस एक परमार्थस्वरूप आत्मा का ही नित्य अनुभव करो; निजरस के प्रसार से परिपूर्ण ज्ञान के स्फुरायमान होनेरूप समयसार से महान इस जगत में कुछ भी नहीं है। यहाँ समयसार का अर्थ निश्चय से परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा है और व्यवहारनय से समयसार नामक ग्रन्थाधिराज है। इस जगत में सर्वोत्कृष्ट वस्तु वह निज भगवान आत्मा ही है, जिसके आश्रय से निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि जिसमें अपनापन स्थापित करने का नाम सम्यग्दर्शन है, जिसे निजरूप जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है और जिसमें जमने का नाम सम्यक्चारित्र है; वह त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा ही वास्तविक आत्मा है, अपने लिए अपने आत्मा से महान अन्य कुछ भी नहीं है। इसीप्रकार जगत में जितने शास्त्र हैं; उन सब शास्त्रों में समयसार सबसे श्रेष्ठ शास्त्र है; उससे महान अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। इसप्रकार इस कलश में समयसाररूप शुद्धात्मा और समयसार नामक ग्रन्थाधिराज की महिमा बताई गई है। साथ में यह आदेश दिया गया है, उपदेश दिया गया है कि अब इस विकल्पजाल से मुक्त होकर निज आत्मा की शरण में जाओ ! आत्मा के कल्याण का एकमात्र उपाय आत्मानुभव ही है; अन्य कुछ नहीं। (अनुष्टुभ् ) इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् । विज्ञानघनमानंदमयमध्यक्षतां नयत् ।।२४५।। जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णाहुँ । अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं ।।४१५।। यः समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा । अर्थे स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यम् ।।४१५।। यः खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्वसमयस्य प्रतिपादनात् स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदमधीत्य, विश्वप्रकाशनसमर्थपरमार्थभूतचित्प्रकाश उक्त कलश का सार मात्र इतना ही है कि जो कछ कहना था: वह विस्तार से कहा जा चका है इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। जिसकी समझ में आना होगा, उसकी समझ में आने के लिए, देशनालब्धि के लिए इतना ही पर्याप्त है; जिसकी समझ में नहीं आना है, उसके लिए कितना ही क्यों न कहो, कुछ भी होनेवाला नहीं है। अत: अब हम (आचार्यदेव) विराम लेते हैं; क्योंकि
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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