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________________ ६ समयसार (मालिनी) चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।।८।। अथैवमेकत्वेन द्योतमानस्यात्मनोऽधिगमोपाया: प्रमाणनयनिक्षेपा: ये ते खल्वभूतार्थास्तेष्वप्ययमेक एव भूतार्थः। समा जाये - यही सच्ची आत्मख्याति है। आत्मख्याति अर्थात् मोक्षमार्ग - अपनी समझ, अपनी पहिचान, अपने में ही सर्वस्व समर्पण। ___ नवतत्त्वों में भी सर्वत्र एक जीवतत्त्व ही प्रकाशमान है और शुद्धनय से उसे जानना ही भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व हैं, जिन्हें सम्यग्दर्शन कहा गया है। __ अब इसी अर्थ को पष्ट करनेवाला कलश लिखते हैं और उसमें प्रेरणा देते हैं कि हे भव्यजनो ! तुम तो नवतत्त्वों में प्रकाशमान एक आत्मज्योति को ही देखो। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) शुद्धकनक ज्यों छिपा हुआ है बानभेद में। नवतत्त्वों में छिपी हुई त्यों आत्मज्योति है ।। एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह। अरे भव्यजन! पद-पद पर तुम उसको जानो।।८।। जिसप्रकार वर्गों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं; उसीप्रकार नवतत्त्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनय के द्वारा बाहर निकालकर प्रगट की गई है और यह आत्मज्योति पद-पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में चित्-चमत्कारमात्र एकरूप में उद्योतमान है। इसलिए हे भव्यजीवो! तुम इसे सदा ही अन्यद्रव्यों एवं उनके आश्रय से होनेवाले नैमित्तिकभावों से भिन्न एकरूप देखो। उक्त कथन में संयोग, संयोगीभाव, द्रव्य-गुण-पर्याय एवं उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के भेद तथा लक्ष्य-लक्षण भेद सभी को व्यवहारनय से सत्यार्थ बताकर भी यह स्पष्ट किया गया है कि शुद्धनय से, भूतार्थनय से ये सभी असत्यार्थ हैं; इन सबसे भिन्न शुद्ध जीववस्तु मात्र ही सत्यार्थ है और उसके आश्रय से ही अनुभव होता है, सम्यक्त्व होता है। आठवें कलश के उपरान्त समागत आत्मख्याति का भाव इसप्रकार है - “अब जिसप्रकार नवतत्त्वों में एक जीव को ही जानना भूतार्थ कहा है; उसीप्रकार एकरूप से प्रकाशमान आत्मा के अधिगम के उपायभूत जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं; वे भी निश्चय से अभूतार्थ हैं, उनमें भी यह आत्मा ही भूतार्थ है। तात्पर्य यह है कि उनमें भी एक आत्मा को बतानेवाला नय ही भूतार्थ है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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