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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ही संचेतन करता हूँ।
९०. मैं शीतस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९१. मैं उष्णस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९२. मैं गुरुस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९३. मैं लघुस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९४. मैं मृदुस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९५. मैं कर्कशस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९६. मैं मधुररस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। फलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।९७। नाहं तिक्तरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।९८। नाहं कटुकरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।९९। नाहं कषायरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१००।
नाहं सुरभिगंधनामकर्मफलंभुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१०१॥नाहमसुरभिगंधनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१०२। ___ नाहं शुक्लवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१०३। नाहं रक्तवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१०४। नाहं पीतवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१०५। नाहं हरितवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१०६। नाहं कृष्णवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१०७।
९७. मैं आम्लरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९८. मैं तिक्तरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
९९. मैं कटुकरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१००. मैं कषायरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा