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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४५. मैं वर्तमान में वचन से कर्म नहीं कराता हूँ। ४६. मैं वर्तमान में वचन से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ। ४७. मैं वर्तमान में काय से कर्म नहीं करता हूँ। ४८. मैं वर्तमान में काय से कर्म नहीं कराता हूँ। ४९. मैं वर्तमान में काय से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ।
इसप्रकार आलोचनाकल्प के ४९ भंग लिखने के उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इनके उपसंहाररूप एक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो।
उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२७ ।। मोह के विलास से फैले हए इन उदयमान कर्मों की आलोचना करके अब मैं चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा से ही वर्त रहा हूँ।
इसप्रकार आलोचनाकल्प समाप्त हुआ।
न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ।१। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा चेति ।२। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च कायेन चेति ।३। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा च कायेन चेति ।४। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा चेति ।५। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा चेति ।६। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, कायेन चेति ।७। ।
न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ।८। न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ।९। न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं
इसप्रकार इन २२६ और २२७ वें छन्द में क्रमश: प्रतिक्रमण और आलोचनापूर्वक निष्कर्म आत्मा में वर्तने की बात कही गई है।
यहाँ श्रद्धा-ज्ञान पूर्वक निज में स्थिर होने का नाम ही वर्तना है।
प्रतिक्रमणकल्प और आलोचनाकल्प के ४९-४९ भंगों के उपरान्त अब प्रत्याख्यानकल्प के ४९ भंग प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार हैं -
१. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा।
२. मैं भविष्य में मन-वचन से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का