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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
५०३ ३७. मैंने पूर्व में मन-काय से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ३८. मैंने पूर्व में वचन-काय से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो।
में वचन-काय से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४०. मैंने पूर्व में वचन-काय से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो । ४१. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४२. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४३. मैंने पूर्व में मन से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४४. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४५. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत कराया, वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४६. मैंने पूर्व में वचन से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४७. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो। ४८. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो । ४९. मैंने पूर्व में काय से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो।
(आर्या) मोहाद्यदहमकार्षं समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।।२२६।। इति प्रतिक्रमणकल्पः समाप्तः।
न करोमि, न कारयामि, न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ।१।न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति ।२। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति ।३। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति ।४। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा चेति ।५ । न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा
प्रतिक्रमणकल्प के ४९ भंगों के उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में उनके उपसंहाररूप एक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) मोहभाव से भूतकाल में कर्म किये जो।
उन सबका ही प्रतिक्रमण करके अब मैं तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के।
शद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२६।। मोह (अज्ञान) से किये गये भूतकालीन समस्त कर्मों का प्रतिक्रमण करके अब मैं चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा से ही निरन्तर वर्त रहा हूँ।
इसप्रकार प्रतिक्रमणकल्प समाप्त हुआ।