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समयसार नहीं कहा है। तात्पर्य यह है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र के घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात नहीं होता। ___ इसप्रकार जो जीव के गुण हैं; वे वस्तुतः परद्रव्य में नहीं हैं; इसलिए सम्यग्दृष्टि का विषयों के प्रति राग नहीं होता।
और राग-द्वेष-मोह जीव के ही अनन्य परिणाम हैं; इसकारण रागादिक शब्दादि विषयों में नहीं हैं।
यद्धि यत्र भवति तत्तद्घाते हन्यत एव, यथा प्रदीपघाते प्रकाशो हन्यते; यत्र च यद्भवति तत्तद्घाते हन्यत एव, यथा प्रकाशघाते प्रदीपो हन्यते । यत्तु यत्र न भवति तत्तद्घाते न हन्यते, यथा घटघाते घटप्रदीपो न हन्यते; यत्र च यन्न भवति तत्तद्घाते न हन्यते, यथा घटप्रदीपघाते घटोन हन्यते।
अथात्मनोधर्मादर्शनज्ञानचारित्राणिपुद्गलद्रव्यघातेऽपिन हन्यते, नचदर्शनज्ञानचारित्राणां घातेऽपि पुद्गलद्रव्यं हन्यते; एवं दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्ये न भवंतीत्यायाति; अन्यथा तद्घाते पुद्गलद्रव्यघातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते तद्घातस्य दुर्निवारत्वात् । यत एव ततो ये यावन्तः केचनापिजीवगुणास्ते सर्वेऽपिपरद्रव्येषु न संतीति सम्यक् पश्यामः, अन्यथा अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते जीवगुणघातस्य च दुर्निवारत्वात् ।
यद्येवं तर्हि कुतः सम्यग्दृष्टेर्भवति रागो विषयेषु ? न कुतोऽपि।
तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष-मोहादिभाव न तो सम्यग्दृष्टि आत्मा में हैं और न जड़-विषयों में ही हैं; वे अज्ञानदशा में रहनेवाले अज्ञानी जीव के परिणाम हैं।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जो जिसमें होता है, वह उसका घात होने पर नष्ट होता ही है अर्थात् आधार का घात होने पर आधेय का घात हो ही जाता है। जिसप्रकार दीपक के घात होने पर प्रकाश नष्ट हो जाता है।
इसीप्रकार जिसमें जो होता है, वह उसका नाश होने पर अवश्य नष्ट हो जाता है अर्थात् आधेय का घात होने पर आधार का घात हो ही जाता है। जिसप्रकार प्रकाश का घात होने पर दीपक का घात हो जाता है।
जो जिसमें नहीं होता, वह उसका घात होने पर नष्ट नहीं होता। जिसप्रकार घड़े का नाश होने पर घटप्रदीप (घड़े मे रखे हुए दीपक) का नाश नहीं होता।
इसीप्रकार जिसमें जो नहीं होता, वह उसका घात होने पर नष्ट नहीं होता। जिसप्रकार घटप्रदीप के नष्ट होने पर घट का नाश नहीं होता।
इसी न्याय से आत्मा के धर्म - दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्य के घात होने पर भी नष्ट नहीं होते और दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात होने पर भी पुद्गलद्रव्य का नाश नहीं होता।
इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्य में नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा न तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात और पुद्गलद्रव्य का घात होने पर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात अवश्य होना चाहिए।
ऐसी स्थिति होने से यह भली-भाँति स्पष्ट है कि जीव के जो जितने गुण हैं; वे सभी परद्रव्यों