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समयसार
४७४ आदि परद्रव्यों की है या नहीं? इसप्रकार यहाँ उनके तात्त्विक (पारमार्थिक) संबंध की मीमांसा की जा रही है।
यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसंबंधे जीवति सेटिका कुड्यादेर्भवंती कुड्यादिरेव भवेत्; एवं सति सेटिकाया: स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्रव्यस्यास्त्युच्छेदः । ततो न भवति सेटिका कुड्यादेः।
यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति?
सेटिकाया एव सेटिका भवति । नन कतराऽन्या सेटिका सेटिकाया यस्याः सेटिका भवति? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ। किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण? न किमपि । तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः । यथायं दृष्टांतस्तथायं दार्टीतिक:
चेतयितात्र तावद् ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभावं द्रव्यम् । तस्य तु व्यवहारेणापोह्य पुद्गलादिपरद्रव्यम् । अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्यापोह्यस्यापोहकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसंबंधो मीमांस्यते -
अब सबसे पहले यह विचार किया जाता है कि यदि कलई दीवार आदि परद्रव्यों की हो तो क्या हो - जिसका जो होता है, वह वही होता है। जैसे कि ज्ञान आत्मा का होने से ज्ञान आत्मा ही है। इसप्रकार के तात्त्विक संबंध के जीवित (विद्यमान) होने से कलई यदि दीवाल आदि की हो तो फिर वह कलई दीवार ही होगी- ऐसा होने पर कलई के स्वद्रव्य का उच्छेद हो जायेगा; परन्तु द्रव्य का उच्छेद तो होता नहीं; क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप में संक्रमण होने का निषेध तो पहले ही किया जा चुका है। इससे यह सिद्ध हुआ कि कलई दीवार आदि की नहीं है।
अब आगे विचार करते हैं कि कलई दीवार आदि की नहीं है तो फिर वह कलई किसकी है ?
यदि यह कहा जाये कि वह कलई कलई की है तो प्रश्न उपस्थित होता है कि उस कलई से भिन्न दूसरी कौन-सी कलई है कि जिसकी वह कलई है?
इसके उत्तर में यह कहा जा रहा है कि उस कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है; किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं।
यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं है। ऐसी स्थिति में कलई किसी की भी नहीं है, कलई तो कलई ही है - यह निश्चय है।
यह तो दृष्टान्त है; अब इसी बात को दार्टान्त पर घटित करते हैं -
इस जगत में चेतयिता अर्थात् चेतनेवाला आत्मा अपोहनगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है और पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहार से उसके अपोह्य हैं।