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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ४६१ वंचित रहते हैं। ___ अब सब विकल्पों से पार आत्मा के अनुभव की प्रेरणा देनेवाला कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रथोद्धता) व्यावहारिकदृशैव केवलं कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चिंत्यते कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते ।।२१।। जह सिप्पिओदुकम्मं कुव्वदि ण य सोदु तम्मओ होदि। तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि।।३४९।। (रोला ) कर्ता-भोक्ता में अभेद हो युक्तिवश से, भले भेद हो अथवा दोनों ही ना होवें। ज्यों मणियों की माला भेदी नहीं जा सके, त्यों अभेद आतम का अनुभव हमें सदा हो ।।२०९।। कर्ता और भोक्ता का युक्तिवश से भेद हो या अभेद अथवा कर्ता-भोक्ता - दोनों ही न हों, जो भी हो; तुम तो एक वस्तु का ही अनुभव करो। जिसप्रकार व्यक्तियों द्वारा डोरे में पिरोई गई मणियों की माला भेदी नहीं जा सकती; उसीप्रकार आत्मा में पिरोई गई चैतन्यरूप चिन्तामणि की माला भी कभी किसी से भेदी नहीं जा सकती। ऐसी यह आत्मारूपी माला एक ही हमें सम्पूर्ण प्रकाशमान हो। तात्पर्य यह है कि नित्यत्व-अनित्यत्व आदि के विकल्पों का शमन होकर हमें आत्मा का निर्विकल्प अनुभव हो। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि कर्ता-भोक्ता आदि के संदर्भ में जिनागम में अनेक अपेक्षायें आती हैं। वस्तुस्थिति समझने के लिए समझते समय उनका भरपूर उपयोग होता है और होना भी चाहिए; किन्तु भगवान आत्मा तो उक्त समस्त विकल्पों से पार है; अत: अनुभव के काल में सभी विकल्प तिरोहित हो जाते हैं, हो जाना चाहिए। अत: हमारी भावना तो यही है कि हमें तो उक्त सभी विकल्पों से पार आत्मा का अनुभव हो। अब आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) अरे मात्र व्यवहार से, कर्म रु कर्ता भिन्न । निश्चयनय से देखिये, दोनों सदा अभिन्न ।।२१०।। केवल व्यवहारदृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न माने जाते हैं; यदि निश्चयनय की दृष्टि से विचार किया जाये तो कर्ता और कर्म सदा एक ही माने जाते हैं। जो बात उत्थानिका के कलश में कही गई है; अब उसी बात को इन गाथाओं में विस्तार से स्पष्ट करते हैं। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) ज्यों शिल्पि कर्म करे परन्त कर्ममय वह ना बने ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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