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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४३१ जा एस पयडीअटुं चेदा णेव विमुञ्चए। अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ।।३१४।। जदा विमुञ्चए चेदा कम्मफलमणंतयं । तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी ।।३१५।।
यावदेष प्रकृत्यर्थं चेतयिता नैव विमुंचति । अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्यादृष्टिरसंयतः ।।३१४।। यदा विमुंचति चेतयिता कर्मफलमनंतकम्।
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ।।३१५।। यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं न मुंचति, तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिर्भवति, स्वपरयोरेकत्व परिणत्या चासंयतो भवति; तावदेव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता भवति ।
यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं मुंचति, तदा स्व
अब इन ३१४-३१५वीं गाथाओं में यह कहते हैं कि जबतक यह आत्मा कर्मप्रकृतियों के निमित्त से उपजना-विनशना नहीं छोड़ता है; तबतक अज्ञानी रहता है, मिथ्यादृष्टि रहता है, असंयमी रहता है।
(हरिगीत) जबतक न छोड़े आतमा प्रकृति निमित्तक परिणमन। तबतक रहे अज्ञानि मिथ्यादृष्टि एवं असंयत ।।३१४।। जब अनन्ता कर्म का फल छोड दे यह आतमा।
तब मुक्त होता बंध से सद्दृष्टि ज्ञानी संयमी ।।३१५।। जबतक यह आत्मा प्रकृति के निमित्त से उपजना-विनशना नहीं छोड़ता; तबतक वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, असंयत है।
जब यह आत्मा अनंत कर्मफल छोड़ता है; तब वह ज्ञायक है, ज्ञानी है, दर्शक है, मुनि है और विमुक्त है अर्थात् बंध से रहित है। आत्मख्याति में इन गाथाओं का अर्थ इसप्रकार किया गया है -
"स्व और पर के भिन्न-भिन्न निश्चित स्वलक्षणों का ज्ञान नहीं होने से जबतक यह आत्मा बंध के निमित्तभूत प्रकृतिस्वभाव को नहीं छोड़ता; तबतक स्व-पर के एकत्व के ज्ञान से अज्ञायक (अज्ञानी) है, स्व-पर के एकत्व के दर्शन (एकत्वरूप श्रद्धान) से मिथ्यादृष्टि है और स्व-पर की एकत्व परिणति से असंयत है तथा तभीतक स्व और पर के एकत्व का अध्यास करने से कर्ता है।
जब वही आत्मा स्व और पर के भिन्न-भिन्न निश्चित स्वलक्षणों के ज्ञान से बंध के निमित्तभूत प्रकृतिस्वभाव को छोड़ देता है, तब स्व-पर के विभाग के ज्ञान से ज्ञानी (ज्ञायक)