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समयसार
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते विनश्यति । प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।।३१२।। एवं बंधस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत् ।
आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ।।३१३।। अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति; प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति । एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेप्यन्योऽन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बंधो दृष्टः, ततः संसारः, तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः ।।३१२-३१३ ।।
चेतन आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। इसीप्रकार प्रकृति भी चेतन आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है और नष्ट होती है। इसप्रकार परस्पर निमित्त से आत्मा और प्रकृति दोनों का बंध होता है और उससे संसार होता है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“अनादि से ही अपने और पर के निश्चित लक्षणों का ज्ञान न होने से स्व और पर के एकत्व का अध्यास करने से कर्ता बनता हुआ यह आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होता है और प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होती है।
इसप्रकार आत्मा और प्रकृति के कर्ता-कर्मभाव का अभाव होने पर भी परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव से दोनों के बंध देखा जाता है। इससे ही संसार है और इसी से आत्मा और प्रकृति के कर्ता-कर्म का व्यवहार है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं का अर्थ करते हुए इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि स्वस्थभाव से च्युत होता हुआ आत्मा कर्मोदय को निमित्त बनाकर विभावभावरूप से परिणमित होता है। वे स्वस्थभाव से च्युत होने पर विशेष बल देते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा स्वस्थभाव से च्युत होनेरूप अपने अपराध से ही विकाररूप परिणमित होता है, कर्मों से बँधता है; किसी परपदार्थ के कारण नहीं, निमित्त के कारण नहीं। ___ तात्पर्य यह है कि आत्मा और कर्मप्रकृतियों का जो बंध होता है; उसमें आत्मा कर्ता और कर्मप्रकृतियों का बंध कर्म - ऐसा नहीं है। यह बात व्यवहार से भले ही कही जाती हो, पर निश्चय से यह बात सही नहीं है। इसप्रकार यहाँ यह कहा गया है कि आत्मा के और ज्ञानावरणादि कर्मों की प्रकृतियों के परमार्थ से कर्ता-कर्मभाव का अभाव है; फिर भी जो बंध होता है, उसका कारण परस्पर में होनेवाला निमित्त-नैमित्तिकभाव है; संसार भी इसी से होता है। यही कारण है कि व्यवहार से इनमें कर्ता-कर्मभाव भी कहा जाता है।
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि यद्यपि निश्चय से आत्मा और कर्म में कर्ता-कर्म भाव का अभाव है; तथापि परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव से दोनों के बंध होता है और इसीकारण आत्मा और कर्म में कर्ता-कर्म का व्यवहार प्रचलित है।