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बंधाधिकार
३८९ किया गया है; शेष दोनों गाथायें समान ही हैं। उक्त शब्दों में जो अन्तर है; उनके अर्थ में भी कोई विशेष अन्तर ख्याल में नहीं आता। तात्पर्य यह है कि दोनों गाथाओं का भाव लगभग एक ही है। ___ यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव, ततः कर्मविपाकप्रभवैः रागद्वेषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः।
ततः स्थितमेतत् - य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकर्मनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एव भूयो रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बंधहेतुरिति ।।२८१-२८२ ।। कथमात्मा रागादीनामकारक एवेति चेत् -
अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं । एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ।।२८३।। अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि। एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ।।२८४।। जावं अम्पडिकमणं अपच्चखाणं च दव्वभावाणं ।
कुव्वदि आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो ॥२८५।। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में दूसरी गाथा की उत्थानिका में ततः स्थितमेतत् लिखकर उक्त बात की ही पुष्टि करते प्रतीत होते हैं तथा आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तमेवार्थं दृढयति लिखकर एकदम साफ कर देते हैं कि इस गाथा में भी पूर्व गाथा की बात को ही दृढ़ता प्रदान कर रहे हैं।
इसप्रकार इन दोनों गाथाओं का भाव लगभग एक-सा ही है। आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यथोक्त वस्तुस्वभाव को नहीं जाननेवाला अज्ञानी अनादिकाल से अपने शुद्धस्वभाव से च्युत ही है; इसकारण कर्मोदय से उत्पन्न राग-द्वेष-मोह आदि भावरूप परिणमता हुआ, रागद्वेष-मोहादि भावों का कर्ता होता हुआ कर्मों से बँधता ही है - ऐसा नियम है। ___ अत: यह निश्चित हुआ कि निश्चय से अज्ञानी को पौद्गलिक कर्मों के निमित्त से होनेवाले राग-द्वेष-मोहादि परिणाम ही आगामी पौद्गलिक कर्मों के बंध के कारण हैं।"
अब आगामी गाथाओं द्वारा यह समझाते हैं कि भगवान आत्मा रागादि भावों का अकारक किसप्रकार है ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) है द्विविध अप्रतिक्रमण एवं द्विविध है अत्याग भी। इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ।।२८३।। अत्याग अप्रतिक्रमण दोनों द्विविध हैं द्रवभाव से। इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ।।२८४।। द्रवभाव से अत्याग अप्रतिक्रमण होवें जबतलक।