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________________ ३२७ निर्जराधिकार यदि चाहते हो मुक्ति तो तुम जीव लोहा जानिये। अर बार तप की धौंकनी को दिल लगाकर धौंकिये।। भुंजंतस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे । संखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्हगो कादं ।।२२०।। तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे। भुजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ।।२२१।। जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण । गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ।।२२२।। तह णाणी विहु जइया णाणसहावं तयं पजहिदूणा अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे ।।२२३।। नागफणी की जड़, हथिनी का मूत्र, सिन्दूर एवं सीसा नामक धातु को धौंकनी से धौंक कर अग्नि पर तपाने से सुवर्ण बन जाता है। कर्म कीट है, रागादि कालिमा है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परम औषधि है, ध्यान अग्नि है, बारह प्रकार का तप धौंकनी है, जीव लोहा है। मुक्ति की प्राप्ति के लिए उक्त धौंकनी को परमयोगियों को धौंकना चाहिए। इन गाथाओं की टीका लिखते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में सोना बनाने की प्रक्रिया में अति महत्त्वपूर्ण एक बात और जोड़ देते हैं। वे कहते हैं कि उक्त विधि से भी सोना तभी बनता है, जब हमारे उस जाति का पुण्योदय हो । पुण्योदय के अभाव में सोना बनना संभव नहीं है। जिसप्रकार उक्त विधि से सोना बन जाता है; उसीप्रकार आसन्न भव्यजीव तपश्चरणरूपी धौंकनी से ध्यानरूपी अग्नि को धौंककर, जीवरूपी लोहे की द्रव्यकर्मरूपी किट्टिमा और रागादिविकार रूपी कालिमा को जलाकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी परमौषधि को प्राप्त कर अनन्त सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। अत: परमयोगियों को तपश्चरणरूपी धौंकनी से ध्यानाग्नि को प्रज्वलित करना चाहिए - यही भाव है उक्त गाथाओं का।। जो बात १५०वें कलश में कही गई थी, अब उसी बात को आगामी गाथाओं में उदाहरण देकर स्पष्ट कर रहे हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) ज्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी शंख के शुक्लत्व को ना कृष्ण कोई कर सके ।।२२०।। त्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी ज्ञानि के ना ज्ञान को अज्ञान कोई कर सके ।।२२१।। जब स्वयं शुक्लत्व तज वह कृष्ण होकर परिणमे । तब स्वयं ही हो कृष्ण एवं शुक्ल भाव परित्यजे ।।२२२।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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