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समयसार अब विगत गाथाओं के भाव का पोषक और आगामी गाथाओं के कथन का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(शार्दूलविक्रीडित ) यादृक् तादृगिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तुं नैष कथंचनापि हि परैरन्यादृशः शक्यते । अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्संततं ज्ञानिन् भुंक्ष्य परापराधजनितो नास्तीह बंधस्तव ।।१५०।।
(हरिगीत ) स्वयं ही हों परिणमित स्वाधीन हैं सब वस्तुयें।
अर अन्य के द्वारा कभी वे नहीं बदली जा सकें। जिम परजनित अपराध से बँधते नहीं जन जगत में।
तिम भोग भोगें किन्तु ज्ञानीजन कभी बँधते नहीं।।१५०।। इस जगत में जिस वस्तु का जैसा स्वभाव है, वह उसके ही कारण है, पूर्णत: स्वाधीन है; उसे अन्य वस्तुओं के द्वारा किसी भी रूप में अन्यरूप नहीं किया जा सकता, उसे बदला नहीं जा सकता। इसकारण जो ज्ञानी जीव निरन्तर ज्ञानरूप परिणमित होते हैं, वे कभी भी अज्ञानरूप नहीं होते। इसलिए हे ज्ञानी ! तू कर्मोदयजनित उपभोग को भोग; क्योंकि पर के अपराध से उत्पन्न होनेवाला बंध तुझे नहीं है । तात्पर्य यह है कि शारीरिक जड़क्रिया से तुझे बंध नहीं होता।
ध्यान रहे, यहाँ भोगने की पुष्टि नहीं है; अपितु इस महासत्य का उद्घाटन किया गया है कि परद्रव्य की क्रिया के कारण आत्मा को किसी भी प्रकार का बंध नहीं होता।
इसके बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में तीन गाथायें आती हैं; जो आत्मख्याति टीका में नहीं हैं। वे गाथायें इसप्रकार हैं -
णागफणीए मूलं णाइणितोएण गब्भणागेण । णागं होइ सुवण्णं धम्मत्तं भच्छवाएण।। कम्मं हवेइ किट्टं रागादि कालिया अह विभाओ। सम्मत्तणाणचरणं परमोसहमिदि वियाणाहि ।। झाणं हवेइ अग्गी तवयरणं भत्तली समक्खादो। जीवो हवेइ लोहं धमियव्वो परमजोईहिं।।
(हरिगीत ) ज्यों नागफणि जड़ मूत्र अर सिन्दूर सीसा धातु में। धौंकनी से धोंकानल में तपाने से स्वर्ण हो ।। कर्म ही है कीट अर रागादि ही हैं कालिमा। औषधि है रतनत्रय अर ध्यान अग्नि जानना ।।