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समयसार
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जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानन्द में।
हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ।।१३८।। किं नाम तत्पदमित्याह -
आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं । थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण ।।२०३।।
आत्मनि द्रव्यभावानपादानि मुक्त्वा गृहाण तथा नियतम् ।
स्थिरमेकमिमं भावमुपलभ्यमानं स्वभावेन ।।२०३।। आचार्यदेव संसार में मग्न जीवों को संबोधित करते हए कह रहे हैं कि हे जगत के अन्धे प्राणियो! अनादि संसार से लेकर आजतक पर्याय-पर्याय में ये रागी जीव सदा मत्त वर्तते हए जिस पद में सो रहे हैं; वह पद अपद है, अपद है - ऐसा तुम जानो।
हे भव्यजीवो ! तुम इस ओर आओ, इस ओर आओ; क्योंकि तुम्हारा पद यह है, यह है; जहाँ तुम्हारी शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु स्वयं के रस से भरी हुई है और स्थाई भावत्व को प्राप्त है, स्थिर है, अविनाशी है।
उक्त कलश में तीन पद दो-दो बार आये हैं - अपद है, अपद है; इस ओर आओ, इस ओर आओ; और शुद्ध है, शुद्ध है। इन पदों की पुनरावृत्ति मात्र छन्दानुरोध से नहीं हुई है; अपितु इस पुनरावृत्ति से कुछ विशेष भाव अभिप्रेत है। ‘इनमें शुद्ध है, शुद्ध है' पद की पुनरावृत्ति से द्रव्यशुद्धता
और भावशुद्धता की ओर संकेत किया गया है। ‘अपद है, अपद है और इधर आओ, इधर आओ' पदों से अत्यधिक करुणाभाव सूचित होता है।
गाथा २०२ के बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में तीन गाथायें आई हैं, जो आत्मख्याति में आगे क्रमश: २१६, २१७ एवं २१८ के रूप में आनेवाली हैं। दोनों टीकाओं में यह क्रम भेद है। उक्त गाथाओं की चर्चा आगे यथास्थान होगी ही; अत: यहाँ उनके बारे में कुछ भी लिखना आवश्यक नहीं है।
इस २०३वीं गाथा के पूर्व समागत कलश में यह कहा गया है कि हे जगत के अन्धे प्राणियो! जिस पद में तुम अपनापन करके सो रहे हो, वह पद अपद है, वह पद तुम्हारा पद नहीं है; अत: तुम उसे छोड़कर स्वपद में आओ।
अत: अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि यदि यह पद हमारा नहीं है तो फिर हमारा पद क्या है, कौन-सा है? इसी प्रश्न के उत्तर में यह २०३वीं गाथा लिखी गई है; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत )
है जो नियत थिर निजभाव ही। अपद पद सब छोड़ ग्रह वह एक नित्यस्वभाव ही ।।२०३।। हे भव्यजीवो ! आत्मा में अपदभूत द्रव्य-भावों को छोड़कर निश्चित, स्थिर एवं एकरूप