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निर्जराधिकार
३०३ इस बात को ध्यान में रखकर आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
यस्य रागादीनामज्ञानमयानां भावानांलेशस्यापि सद्भावोऽस्ति स श्रुतकेवलिकल्पोऽपिज्ञानमयस्य भावस्याभावादात्मानं न जानाति । यस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानाति, स्वरूपपररूपसत्तासत्ताभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात् । ततोय आत्मानात्मानौ न जानाति स जीवाजीवौ न जानाति । यस्तु जीवाजीवौ न जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति । ततो रागी ज्ञानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः॥२०१-२०२।।
(मन्दाक्रान्ता) आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः । एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरत: स्थायिभावत्वमेति ।।१३८।। “जिसके अज्ञानमय रागादिभावों का लेशमात्र भी सद्भाव है; वह भले ही श्रुतकेवलीकल्प अर्थात् श्रुतकेवली के समान हो, तो भी ज्ञानमयभावों के अभाव के कारण आत्मा को नहीं जानता और जो आत्मा को नहीं जानता, वह अनात्मा को भी नहीं जानता; क्योंकि स्वरूप से सत्ता और पररूप से असत्ता - इन दोनों के द्वारा ही एक वस्तु का निश्चय होता है।
इसप्रकार जो आत्मा और अनात्मा को नहीं जानता; वह जीव और अजीव को नहीं जानता तथा जो जीव और अजीव को नहीं जानता, वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है। इसलिए रागीजीव ज्ञान के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि नहीं होता।"
देखो, यहाँ ‘परमाणुमात्र राग' का अर्थ अज्ञानमय रागादिभावों का लेशमात्र किया है; जिसका आशय यह है कि मिथ्यात्व और मिथ्यात्व के साथ होनेवाले रागादिभावों का लेशमात्र भी हो तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। इसीप्रकार 'सर्व आगमधर' का अर्थ श्रुतकेवली न करके श्रुतकेवलीकल्प किया है; क्योंकि श्रुतकेवली तो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी ही होते हैं। यद्यपि 'सर्व आगमधर' का अर्थ श्रुतकेवली ही होता है; तथापि इसप्रकार के प्रयोगों में वही अर्थ अभीष्ट होता है; जो आगम और परमागम की परम्परा से मेल खाता हो।
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि रागादि भावों में उपादेयबुद्धिवाले जीव सर्व आगम को जानकर भी सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकते।
अब आत्मख्याति में इसी भाव का पोषक कलशकाव्य लिखते हैं, जिसमें आचार्य अमृतचन्द्रअनादिकाल से मोहनींद में सोये हुए जीवों को झकझोर कर जगा रहे हैं। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियो। यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे ।।