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अथैतदेव दर्शयति
समयसार
सेतो विण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि । । १९७ ।।
सेवमानोऽपि न सेवते असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् ।
प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति । । १९७ ।।
यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोऽपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः, अपरस्तु तत्राव्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिक:, तथा सम्यग्दृष्टिः पूर्वसंचितकर्मोदयसंपन्नान्
ज्ञानी विषयों का सेवन करते हुए भी, सेवक होने पर भी असेवक ही है; क्योंकि वह विषयों का सेवन करते हुए भी ज्ञान के वैभव और वैराग्य के बल से विषय सेवन के फल को नहीं भोगता और रंजित परिणाम को प्राप्त नहीं होता ।
यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि विषय सेवन का फल रंजित परिणाम है और ज्ञानी उस रंजित परिणाम को नहीं भोगते; इसकारण वे न तो कर्मों के कर्ता हैं और न भोक्ता । यही कारण है कि उन्हें भोगों को भोगते हुए भी बंध नहीं होता ।
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अब उक्त १३५ वें कलश में कही गई बात को इस १९७वीं गाथा के माध्यम से स्पष्ट करते हैं
( हरिगीत )
ज्यों प्रकरणगत चेष्टा करें पर प्राकरणिक नहीं बनें ।
त्यों ज्ञानिजन सेवन करें पर विषय सेवक नहीं बनें ।। १९७ । ।
जिसप्रकार किसी व्यक्ति के किसी प्रकरण की चेष्टा होने पर भी वह प्राकरणिक नहीं होता और चेष्टा से रहित व्यक्ति प्राकरणिक होता है; उसीप्रकार कोई व्यक्ति विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवक नहीं होता है और कोई व्यक्ति सेवन नहीं करता हुआ भी सेवक होता है।
इस गाथा में प्रकरणचेष्टा और प्राकरणिक - ये दो शब्द आये हैं । प्रकरणचेष्टा का अर्थ है - कोई कार्य और प्राकरणिक का अर्थ है - उस कार्य का कर्ता । मालिक की आज्ञा से उसके लाभ के लिए सेवक जो कार्य करता है; यद्यपि उस कार्य को करता हुआ तो सेवक ही दिखाई देता है; तथापि उसका असली कर्ता सेवक नहीं, मालिक ही होता है । सेवक कार्य करते हुए भी अकर्ता है और मालिक कार्य न करते हुए भी कर्ता है। इसप्रकार यहाँ वह कार्य प्रकरणचेष्टा है और मालिक प्राकरणिक है।
आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा का भाव बिना किसी लाग-लपेट के अत्यन्त सीधी-सादी सरल भाषा में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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" जिसप्रकार कोई पुरुष किसी प्रकरण की क्रिया में प्रवर्तमान होने पर भी प्रकरण का स्वामित्व न होने से प्राकरणिक नहीं है और दूसरा पुरुष उक्त क्रिया में प्रवृत्त न होता हुआ भी