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समयसार नहीं है।
(मालिनी) विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः प . व ब द्ध । : समयमनुसरंतो यद्यपि द्रव्यरूपाः। तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासादवतरति न जातु ज्ञानिन: कर्मबन्धः।।११८।।
(अनुष्टुभ् ) रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभवः।
तत एव न बंधोऽस्य ते हि बंधस्य कारणम् ।।११९।। इसप्रकार न तो बंधावस्था को प्राप्त कर्म बंधन के कारण हैं, न सत्ता में पड़े हुए कर्म बंधन के कारण हैं और न रागादि के बिना उदय में आये कर्म बंधन के कारण हैं।
इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि कर्म का बंध, सत्त्व और उदय जीव को बंधन में नहीं डालते, आगामी कर्मों का बंध नहीं करते; अपितु आत्मा में उत्पन्न होनेवाले रागादिभाव ही कर्मबंध के मूलकारण हैं। अत: कर्मों के बंध, सत्त्व और उदय के विचार से आकुलित होने की आवश्यकता नहीं है।
अब आचार्य अमृतचन्द्र इसी भाव का पोषक कलशकाव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) पूर्व में जो द्रव्यप्रत्यय बँधे थे अब वे सभी । निजकाल पाकर उदित होंगे सुप्त सत्ता में अभी ।। यद्यपी वे हैं अभी पर राग-द्वेषाभाव से।
अंतर अमोही ज्ञानियों को बंध होता है नहीं।।११८।। यद्यपि अपने समय का अनुसरण करनेवाले, अपने-अपने समय में उदय में आनेवाले पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय अपनी सत्ता को नहीं छोड़ते; तथापि सर्व राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से ज्ञानी के कर्मबंध कदापि नहीं होता।
इसप्रकार इन १७३ से १७६ तक की गाथाओं में तथा उनके बाद समागत ११८वें कलश में यही कहा गया है कि द्रव्यकर्मों के सत्ता में विद्यमान रहने पर भी ज्ञानी के भूमिकानुसार राग-द्वेष-मोह के अभाव में तत्संबंधी बंध नहीं होता। इसीकारण उसे अबंधक कहा जाता है।
इसके बाद आगामी दो गाथाओं की उत्थानिकारूप कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) राग-द्वेष अर मोह ही. केवल बंधकभाव।