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कर्ताकर्माधिकार
२२१ यह अचल है अविकल्प है बस यही दर्शन ज्ञान है।। निभृतजनों का स्वाद्य है अर जो समय का सार है।
जो भी हो वह एक ही अनुभूति का आधार है ।।९३।। नयों के पक्षों से रहित, अचल, निर्विकल्पभाव को प्राप्त होता हुआ जो समय का सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार (शुद्धात्मा) है, जो कि निभृत (आत्मलीन-निश्चल) पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, उनके अनुभव में आता है और विज्ञान ही जिसका एक रस है - ऐसा भगवान आत्मा पवित्र है, पुराणपुरुष है। उसे ज्ञान कहो या दर्शन, चाहे जो कुछ भी कहो, वह ही सारभूत है। अधिक क्या कहें - जो कुछ है, वह एक ही है।
(शार्दूलविक्रीडित ) दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्चयुतो दूरादेव विवेकनिम्नगमनानीतो निजौघं बलात् । विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।।९४।। इसप्रकार यह कलश दृष्टि के विषयभूत, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकमात्र मूलाधार भगवान आत्मा की महिमा बतानेवाला कलशकाव्य है।
अब आगामी कलश में यह कहते हैं कि यह आत्मानुभव कैसे होता है ? मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत) निज औघ से च्युत जिसतरह जल ढालवाले मार्ग से। बलपूर्वक यदि मोड़ दें तो आ मिले निज औघ से ।। उस ही तरह यदि मोड़ दें बलपूर्वक निजभाव को।
निजभाव से च्युत आत्मा निजभाव में ही आ मिले ।।९४।। जिसप्रकार पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो, उसे दूर से ही ढालवाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये तो वह पानी पानी को पानी के समूह की ओर खींचता हुआ, प्रवाहरूप होकर अपने समूह में आ मिलता है।
उसीप्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर-दूर तक परिभ्रमण कर रहा था, उसे दूर से विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया। इसलिए विज्ञानघन आत्मा का रसिक आत्मा आत्मा को आत्मा की ओर खींचता हुआ, ज्ञान को ज्ञानी की ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है। ____ पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहना है; अतः अपने समूह से विलग होकर गहन वन में नीचे की ओर बहनेवाले पानी का दुबारा उसी जलसमूह में आ मिलना आसान नहीं है; तथापि यदि उसे बलपर्वक ढालवाले मार्ग से उसी ओर मोड़ दिया जाये, जहाँ से वह जलसमूह से विलग हआ था,