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समयसार प्राप्त करने की, आत्मानुभूति प्राप्त करने की विधि भी बताई गई है। ___ इस विधि में यह बताया गया है कि सर्वप्रथम क्या करना चाहिए। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए करणलब्धि का होना अत्यन्त आवश्यक है और करणलब्धि देशनालब्धि के बिना नहीं होती। अत: सर्वप्रथम देशनालब्धि की बात है और देशनालब्धि के लिए सर्वप्रथम श्रुतज्ञान के माध्यम से, देव-गुरु के सदुपदेश से, जिनवाणी के स्वाध्याय से, ज्ञानी धर्मात्मा के संबोधन से, तत्संबंधी अध्ययन से, मनन से, चिन्तन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करना चाहिए, ज्ञानस्वभावी आत्मा का विकल्पात्मक ज्ञान में सम्यक् निर्णय करना चाहिए, आत्मा के ज्ञानस्वभाव को भलीभाँति
(शार्दूलविक्रीडित ) आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् । विज्ञानैकरस: स एष भगवान्पुण्यः पुराण: पुमान्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।।९३।। समझना चाहिए; क्योंकि जबतक आत्मा का स्वरूप विकल्पात्मक ज्ञान में भलीभाँति स्पष्ट नहीं होगा, तबतक आत्मानुभूति की प्रक्रिया सम्पन्न होना संभव नहीं है।
जब श्रुतज्ञान के माध्यम से ज्ञानस्वभावी आत्मा जान लिया जाये तो फिर उसके बाद मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रूप ज्ञान पर्यायों को बाह्य विषयों में से समेट कर आत्मसम्मुख करना है। ____ मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के माध्यम से परपदार्थों को जानने में उलझा है और श्रुतज्ञान नानाप्रकार के नयविकल्पों में उलझ कर रह गया है, आकुलित हो रहा है। इन दोनों ही ज्ञानों को मर्यादा में लाकर आत्मसन्मुख करना है। आत्मानुभूति प्राप्त करने का यही उपाय है।
जब यह मतिज्ञान और श्रुतज्ञान निर्विकल्प होकर आत्मसम्मुख होते हैं, तब तत्काल ही समयसारस्वरूप भगवान आत्मा का दर्शन होता है, ज्ञान होता है; भगवान आत्मा प्रतीति में आता है, अनुभूति में आता है और उसमें अतीन्द्रिय आनन्द का झरना झरता है।
आत्मा की इसी परिणति का नाम आत्मानुभूति है, सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है। इसकारण आत्मा और आत्मानुभूति एक ही हैं, अभिन्न ही हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान भी आत्मा ही है।
इसप्रकार कर्ताकर्माधिकार की इस अन्तिम गाथा और उसकी टीका में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने की विधि बताकर यह कहा गया है कि समयसाररूप भगवान आत्मा अथवा उसके अनुभव का नाम ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
अब यहाँ १४४वीं गाथा की समाप्ति के साथ ही कर्ताकर्माधिकार भी समाप्त हो रहा है। इस अवसर पर आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति टीका में ७ कलश लिखते हैं, जिनमें आरंभ के दो कलश तो पक्षातिक्रान्त समयसार का स्वरूप बतानेवाले प्रकरण से संबंधित हैं, शेष ५ कलश सम्पर्ण कर्ताकर्माधिकार के समापन कलश हैं। प्रथम कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) यह पुण्य पुरुष पुराण सब नयपक्ष बिन भगवान है।