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________________ २०८ समयसार कौन नहीं नचायेगा।' - ऐसा कहकर आचार्य अमृतचन्द्र नयपक्ष के त्याग की भावनावाले २३ कलशरूप काव्य लिखते हैं, जिनमें पहले काव्य का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (सोरठा ) जो निवसे निज माहिं, छोड़ सभी नय पक्ष को। करे सुधारस पान, निर्विकल्प चित शान्त हो ।।६९।। जो नयों के पक्षपात को छोड़कर सदा स्वरूप में गुप्त होकर निवास करते हैं, वे ही साक्षात् अमृत का पान करते हैं; क्योंकि उनका चित्त विकल्पजाल रहित हो गया है और एकदम शान्त हो गया है। (उपजाति) एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७०।। एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७१।। एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७२।। अब आचार्य अमृतचन्द्र लगभग एक से ही भाव वाले २० छन्दों के माध्यम से नयपक्ष-संन्यास की भावना को नचाते हैं, आत्मानुभव की भावना को भाते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) एक कहे ना बँधा दूसरा कहे बँधा है, किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है।।७०।। एक नय का पक्ष है कि जीव कर्मों से बँधा है और दूसरे नय का पक्ष है कि जीव कर्मों से बँधा नहीं है। इसप्रकार चित्स्वरूप जीव के संबंध में दो नयों के दो पक्षपात हैं, किन्तु तत्त्व का वेत्ता इन दोनों ही पक्षपातों से रहित होता है। उसके लिए चित्स्वरूप जीव सदा चित्स्वरूप ही है। एक कहे ना मूढ़ दूसरा कहे मूढ़ है, किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है।।७१।। एक नय का पक्ष है कि जीव मूढ़ है और दूसरे नय का पक्ष है कि जीव मूढ़ नहीं है। इसप्रकार चित्स्वरूप जीव के संबंध में दो नयों के दो पक्षपात हैं, किन्तु तत्त्ववेदी पक्षपात से रहित है। उसके लिए तो चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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