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समयसार होता है, तब स्वयमेव अज्ञान से स्वपर के एकत्व के अध्यास के कारण तत्त्व-अश्रद्धान आदि अपने अज्ञानमय परिणामभावों का हेतु होता है।"
उक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि द्रव्यप्रत्ययों के उदय में जब जीव स्वयं विकारीभावोंरूप परिणमित होता है, तब कर्मबंधन को प्राप्त होता है; किन्तु जब यह जीव कर्मोदय के विद्यमान रहते हए भी स्वात्मोन्मुखी पुरुषार्थ करके विकाररूप परिणमित नहीं होता, निर्विकारी रहता है, सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप परिणमन करता है; तब आगामी बंध नहीं होता। अत: आत्मार्थियों को स्वात्मोपलब्धि के लिए सतत् सावधान रहना चाहिए।
जीवस्य तु कर्मणा च सह परिणामाः खलु भ व ति र । ग । द य : । एवं जीवः कर्म च द्वे अपि रागादित्वमापन्ने ।।१३७।। एकस्य तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभिः । तत्कर्मोदयहेतुभिर्विना जीवस्य परिणामः ।।१३८।। यदि जीवेन सह चैव पुद्गलद्रव्यस्य कर्मपरिणामः । एवं पुद्गलजीवौ खलु द्वावपि कर्मत्वमापन्नौ ।।१३९।। एकस्य तु परिणाम: पुद्गलद्रव्यस्य कर्मभावेन ।
तज्जीवभावहेतुभिर्विना कर्मणः परिणामः ।।१४०।। यदि पुद्गलद्रव्यस्य तन्निमित्तभूतरागाद्यज्ञानपरिणामपरिणतजीवेन सहैव कर्मपरिणामो भवतीति
अब इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि पुद्गल का परिणाम जीव से भिन्न है और जीव का परिणाम पुद्गल से भिन्न है। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) इस जीव के रागादि पुद्गलकर्म में भी हों यदी। तो जीववत् जड़कर्म भी रागादिमय हो जायेंगे ।।१३७।। किन्तु जब जड़कर्म बिन ही जीव के रागादि हों। तब कर्मजड़ पुद्गलमयी रागादिमय कैसे बनें ॥१३८।। यदि कर्ममय परिणाम पुद्गल द्रव्य का जिय साथ हो। तो जीव भी जड़कर्मवत् कर्मत्व को ही प्राप्त हो ।।१३९।। किन्तु जब जियभाव बिन ही एक पुद्गल द्रव्य का।
यह कर्ममय परिणाम है तो जीव जड़मय क्यों बने ? ||१४०।। जीव के कर्म के साथ ही रागादि परिणाम होते हैं अर्थात् कर्म और जीव दोनों मिलकर रागादिरूप परिणमित होते हैं' - यदि ऐसा माना जाये तो जीव और कर्म दोनों ही रागादिभावपने को प्राप्त हो जायें; परन्तु रागादिभावरूप तो एक जीव ही परिणमित होता है। इसकारण कर्मोदयरूप हेतु के बिना ही रागादिभाव जीव के परिणाम हैं।