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________________ कर्ताकर्माधिकार १८५ उपचार से कहा जाता है कि प्रजा के गुण-दोषों का उत्पादक राजा है। उसीप्रकार पुद्गलद्रव्य के गुण-दोषों और पुद्गलद्रव्य में व्याप्यव्यापकभाव होने से पुद्गलद्रव्य ही अपने गुण-दोषों का उत्पादक है - यह स्वभाव से ही सिद्ध होने पर भी पुद्गल के गुण-दोषों और आत्मा में व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने पर भी उपचार से कहा जाता है कि पुद्गल के गुण-दोषों का उत्पादक जीव है।" (वसन्ततिलका) जीव: करोति यदि पुद्गलकर्म नैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशंकयैव । एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ ।।६३।। सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥१०९।। तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो। मिच्छादिट्टी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।।११०॥ एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा । ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ।।१११।। गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा। तम्हा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।।११२।। इसप्रकार इन गाथाओं में अन्तिम रूप से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आत्मा ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है; क्योंकि यह आत्मा न तो उन्हें उत्पन्न करता है, न करता है, न परिणमित करता है, न ग्रहण करता है और न बाँधता ही है। यह सुनिश्चित हो जाने पर इसप्रकार के प्रश्न सहज ही उत्पन्न होते हैं कि यदि ऐसा है तो फिर इन कर्मों को कौन बाँधता है, ये कर्म आत्मा के साथ क्यों बँधते हैं, कैसे बँधते हैं ? ये प्रश्न इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इन्हें आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं कलश के रूप में उपस्थित करते हैं। जिस कलश में इसप्रकार का प्रश्न उठाया गया है, उस कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) यदि पुद्गलमय कर्म को, करे न चेतनराय। कौन करे - अब यह कहें, सुनो भरम नश जाय ।।६३।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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