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समयसार होते हैं। इसकारण बहुत से आत्मार्थी बन्धु असमंजस में पड़ जाते हैं।
उन आत्मार्थी भाइयों के असमंजस को दूर करने के लिए आचार्यदेव आगामी गाथाओं में कह रहे हैं कि वह सब कथन व्यवहारनय का है और वह व्यवहार भी प्रजा के दोषों का उत्तरदायी राजा को कहने के समान ही है। अतः यह निश्चित हुआ कि -
उत्पादयति करोति च बध्नाति परिणामयति गृह्णाति च। आत्मा पुद्गलद्रव्यं व्यवहारनयस्य वक्तव्यम् ।।१०७।। यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः।
तथा जीवो व्यवहारात् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः ।।१०८।। अयं खल्वात्मा न गृह्णाति न परिणमयति नोत्पादयति न करोति न बध्नाति व्याप्यव्यापकभावाभावात् प्राप्यं विकार्य निर्वयं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म । यत्तु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्य निर्वयंच पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणमयति उत्पादयति करोतिबध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः। __कथमिति चेत् - यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः, तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः॥१०७-१०८॥
(हरिगीत) ग्रहे बाँधे परिणमावे करे या पैदा करे। पुद्गल दरव को आतमा व्यवहारनय का कथन है।।१०७।। गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से।
त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ।।१०८।। आत्मा पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न करता है, करता है, बाँधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है, यह व्यवहारनय का कथन है।
जिसप्रकार राजा को प्रजा के दोष और गुणों को उत्पन्न करनेवाला कहा जाता है; उसीप्रकार यहाँ जीव को पुद्गल द्रव्य के द्रव्य-गुणों को उत्पन्न करनेवाला कहा गया है।
आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “वस्तुत: यह आत्मा व्याप्यव्यापकभाव के अभाव के कारण प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य - ऐसे पुद्गलद्रव्यात्मक कर्म को ग्रहण नहीं करता, परिणमित नहीं करता, उत्पन्न नहीं करता और न उसे करता है, न बाँधता है; फिर भी अर्थात् व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने पर भी प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्यरूप पुद्गलद्रव्यात्मक कर्म को आत्मा ग्रहण करता है, परिणमित करता है, उत्पन्न करता है, करता है और बाँधता है; इसप्रकार का जो विकल्प है, वह वस्तुतः उपचार ही है। ___ यदि कोई कहे कि किसप्रकार तो कहते हैं कि - जिसप्रकार प्रजा के गुण-दोषों और प्रजा में व्याप्यव्यापकभाव होने से प्रजा ही अपने गुण-दोषों की उत्पादक है - यह स्वभाव से ही सिद्ध होने पर भी प्रजा के गुण-दोषों और राजा में व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने पर भी