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कर्ताकर्माधिकार
१७९ उनके परिणमन का तो वह ज्ञाता-दष्टा ही है, कर्ता-धर्ता नहीं।
गाथा १०१ में कहा गया है कि ज्ञानी आत्मा परभावों का कर्ता नहीं है, पर उन्हें जाननेरूप अपने परिणाम का कर्ता अवश्य है। अत: यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि समझदार होने से ज्ञानी भले ही परपदार्थों के परिणमन को न करता हो, पर अज्ञानी तो पर का कार्य करता ही होगा? इस प्रश्न का उत्तर आगामी गाथा में दिया गया है कि अज्ञानी भी परभावों का कर्ता नहीं है। अज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात् -
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ।।१०२।।
यं भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता।
तत्तस्य भक्ति कर्मस तस्य तु वेदक आत्मा ।।१०।। इह खल्वनादेरज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेन पुद्गलकर्मविपाकदशाभ्यां मंदतीव्रस्वादाभ्यामचलितविज्ञानघनैकस्वादस्याप्यात्मन: स्वादं भिंदानः शुभमशुभं वा यो यं भावमज्ञानरूपमात्मा करोति स आत्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य व्यापकत्वाद्भवति कर्ता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद्भवति कर्म, स एव चात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य भावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वाद्भवत्यनुभाव्यः ।।१०२।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) निजकृत शुभाशुभभाव का कर्ता कहा है आतमा ।
वे भाव उसके कर्म हैं वेदक है उनका आतमा ।।१०२।। आत्मा जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है, उस भाव का वह वास्तव में कर्ता होता है और वह भाव उसका कर्म होता है तथा वह आत्मा उस भाव का भोक्ता भी होता है।
आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यद्यपि आत्मा अचलित एक विज्ञानघन स्वादवाला ही है, तथापि जो आत्मा अनादिकालीन अज्ञान के कारण पर के और अपने एकत्व के अध्यास से मंद और तीव्र स्वादयुक्त पुद्गलकर्म के विपाक की दो दशाओं द्वारा अपने विज्ञानघन स्वाद को भेदता हुआ अज्ञानस्वरूप शुभ या अशुभ भाव को करता है; वह अज्ञानी आत्मा उससमय तन्मयता से उस भाव में व्यापक होने से उस शुभाशुभभाव का कर्ता होता है और वह शुभाशुभभाव भी उससमय तन्मयता से उस आत्मा का व्याप्य होने से उसका कर्म होता है; और वही आत्मा उस समय तन्मयता से उस भाव का भावक होने से उसका अनुभव करनेवाला भोक्ता होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयता से उस आत्मा का भाव्य होने से उसका अनुभाव्य होता है, भोग्य होता है। इसप्रकार अज्ञानी भी परभाव का कर्ता नहीं है।"
उक्त टीका में यह बताया गया है कि यह ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा भी जब अज्ञान के कारण शुभाशुभभावों में व्याप्त होता है, शुभाशुभभावों में तन्मय होता है, तन्मयता से उनके कर्तृत्व और