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________________ समयसार १७८ (हरिगीत ) ज्ञानावरण आदिक जु पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं। उनको करे ना आतमा जो जानते वे ज्ञानि हैं।।१०१।। ज्ञानावरणादिक पुद्गल द्रव्यों के जो परिणाम हैं, उन्हें जो आत्मा करता नहीं है, परन्तु जानता है; वह आत्मा ज्ञानी है। ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसव्याप्तदधिदुग्धमधुराम्लपरिणामवत्पुदगलद्रव्यव्याप्तत्वेन भवंतो ज्ञानावरणानि भवंति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इवन नाम करोति ज्ञानी, किन्तु यथा स गोरसाध्यक्षस्तदर्शनमात्मव्याप्तत्वेन प्रभवव्याप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणामनिमित्तं ज्ञानमात्मव्याप्यत्वेन प्रभवद्व्याप्य जानात्येव । एवं ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात् ।। __ एवमेव च ज्ञानावरणपदपरिवर्तनेन कर्मसूत्रस्य विभागेनोपन्यासाद्दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रांतरायसूत्रैः सप्तभिः सह मोहरागद्वेषक्रोधमानमायालोभनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुओणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ॥१०१।। आत्मख्याति में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार गोरस के द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले दूध-दही गोरस के ही खट्टे-मीठे परिणाम हैं। उन्हें तटस्थभाव से जाननेवाला ज्ञाता-दृष्टा पुरुष उनको करता नहीं है; उसीप्रकार पुद्गलद्रव्य के द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले ज्ञानावरणादिक कर्म पुद्गल द्रव्य के ही परिणाम हैं। उन्हें तटस्थभाव से जाननेवाला ज्ञाता-दृष्टा ज्ञानी जीव उनको करता नहीं है। किन्तु जिसप्रकार वह गोरस को देखने-जाननेवाला पुरुष गोरस को देखने-जानने में व्याप्त होकर मात्र उसे देखता-जानता ही है; उसीप्रकार ज्ञानी जीव भी उन ज्ञानावरणादिक कर्मों को देखने-जानने में व्याप्त होकर मात्र उन्हें देखता-जानता ही है। इसप्रकार ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है। इसीप्रकार ज्ञानावरण पद के स्थान पर क्रमश: दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय पद रखकर सात कर्मसूत्र और बनाना चाहिए। इसीप्रकार मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - इन सोलह पदों को रखकर सोलह सूत्र बनाकर व्याख्यान करना चाहिए। इस उपदेश से इसीप्रकार के अन्य सूत्र भी बनाये जा सकते हैं। उसका भी विचार कर लेना चाहिए।" गाय के दूध और उससे बननेवाले पदार्थों को यदि एक नाम से कहना हो तो उन्हें गोरस कहा जा सकता है। गाय का रस माने दूध-दही आदि । गोरस स्वयं ही दूध से दहीरूप में परिणमित हो जाता है। अपने इस परिणमन का कर्ता वह स्वयं ही है, उसे दूर से ही तटस्थभाव से देखनेवाला पुरुष नहीं। उस दूध को दहीरूप में स्वयं परिणमित होते देखनेवाला पुरुष अपने उस देखने-जाननेरूप परिणमन का कर्ता तो है, पर दूध को दहीरूप में परिणमाने का कर्ता नहीं। ___ इसीप्रकार कार्माणवर्गणायें ज्ञानावरणादि कर्मरूप स्वयं ही परिणमित होती हैं, उन्हें जाननेवाला ज्ञानी जीव उन्हें जाननेरूप अपनी ज्ञान परिणति का तो कर्ता है, पर उनके परिणमन का कर्ता नहीं;
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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