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कर्ताकर्माधिकार
इसीप्रकार ज्ञेय-ज्ञायकभाव को प्राप्त, स्वपर के सामान्य-अधिकरणरूप अनुभव करने से 'मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ' - ऐसा आत्मविकल्प उत्पन्न करता है; इसलिए मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ - ऐसी भ्रान्ति के कारण सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिकपरिणामरूप अपने भाव का कर्ता होता है।" -ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम् -
एवं पराणि दव्वाणि अप्पय कुणदि मंदबुद्धीओ। अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण ।।९६।।
एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मंदबुद्धिस्तु ।
आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन ।।९६।। पर और निज में अविशेष दर्शनरूप मिथ्यादर्शन, अविशेष ज्ञानरूप मिथ्याज्ञान और अविशेष रतिरूप, रमणतारूप, लीनतारूप मिथ्याचारित्र - ये तीनों सविकारचैतन्य परिणाम हैं, आत्मा के ही विकारी परिणाम हैं।
यद्यपि ये तीनों आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुणों के विकारी परिणमन हैं; तथापि इन्हें सामान्यरूप से 'अज्ञान' नाम से ही अभिहित किया जाता है। इन्हीं परिणामों को ९३वीं गाथा में पुद्गल का परिणाम कहा था; और यहाँ इन्हें सविकारचैतन्यपरिणाम कहा जा रहा है।
भाव्य-भावक संबंधवाले क्रोधादिभावों और ज्ञेय-ज्ञायकभाव को प्राप्त धर्मादि द्रव्यों को अपने आत्मा से भिन्न न जानकर जब यह आत्मा मैं क्रोध हूँ, मैं मान हूँ आदि सविकारचैतन्यपरिणामरूप और मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ आदि सोपाधिपरिणामोंरूप परिणमित होता है, तब वह अपने इन सविकारचैतन्यपरिणामों का एवं सोपाधिकपरिणामों का कर्ता-भोक्ता होता है। चूँकि उक्त सभी सविकारचैतन्यपरिणाम और सोपाधिकपरिणामों का एक नाम अज्ञान है; इसकारण यह कहा जाता है कि अज्ञानभावरूप से परिणमित आत्मा अर्थात् अज्ञानी आत्मा अज्ञानभाव का कर्ता-भोक्ता है।
यद्यपि धर्मादि ज्ञेयभावों एवं क्रोधादि भावकभावों से निजभगवान आत्मा भिन्न है; तथापि निज आत्मा और इन भावों के बीच भेदज्ञान न होने से यह आत्मा “मैं धर्मादिद्रव्यरूप हूँ और मैं क्रोधादिभावों रूप हूँ' - इसप्रकार के विकल्पों रूप परिणमित होता हुआ आत्मा इसीप्रकार के श्रद्धानरूप परिणमित होता है, इसीप्रकार के ज्ञानरूप परिणमित होता है व इसीप्रकार के आचरणरूप परिणमित होता है और इसे ही अज्ञानरूप परिणमित होना कहा जाता है।
इसप्रकार परिणमित अज्ञानी आत्मा इस परिणमन का कर्ता होता है और यह परिणमन उस अज्ञानी आत्मा का कर्म होता है। उक्त दोनों गाथाओं और उनकी टीका में मात्र यही कहा गया है।
अतः यह सिद्ध हो गया कि कर्तत्व का मल अज्ञान है - यह वाक्य विगत गाथाओं का उपसंहार और आगामी गाथा की उत्थानिका है।
मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -