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________________ समयसार (हरिगीत ) त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं क्रोध हँ' इम परिणमें। तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।९४।। त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं धर्म हँ' इम परिणमें। तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।९५।। एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविध: सविकारश्चैतन्यपरिणाम: परात्मनोरविशेषदर्शने नाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपहृत्य भाव्यभावकभावापन्नयोश-चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोऽहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति, ततोऽय-मात्मा क्रोधोऽहमिति भ्रांत्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्यपरिणाम-रूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि । एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणाम: परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्त भेदमपहृत्य ज्ञेयज्ञायकभावापन्नयो: परात्मनोः समानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं जीवांतरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽयमात्मा धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं जीवांतरमहमिति भ्रांत्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सोपाधिचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् ।।९४-९५ ।। यह तीनप्रकार का उपयोग जब क्रोधादि में 'मैं क्रोध हूँ' - इसप्रकार का आत्मविकल्प करता है, अपनेपन का विकल्प करता है; तब आत्मा उस उपयोगरूप अपने भाव का कर्ता होता है। इसीप्रकार यह तीनप्रकार का उपयोग जब धर्मास्तिकाय आदि में 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ' - इसप्रकार का आत्मविकल्प करता है, अपनेपन का विकल्प करता है; तब आत्मा उस उपयोगरूप अपने भाव का कर्ता होता है। आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "सामान्यतः अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप तीनप्रकार का सविकार चैतन्यपरिणाम है, वह पर के और अपने अविशेष दर्शन से, अविशेषज्ञान से और अविशेष रति से समस्त भेद को छिपाकर, भाव्य-भावकभाव को प्राप्त चेतन और अचेतन का सामान्यअधिकरणरूप अनुभव करने से - मानो उनका एक ही आधार हो - इसप्रकार का अनुभव करने से – 'मैं क्रोध हूँ' - ऐसा विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिए मैं क्रोध हूँ' - ऐसी भ्रान्ति के कारण सविकार चैतन्यपरिणामरूप अपने भाव का कर्ता होता है। इसीप्रकार क्रोध पद को बदलकर मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, रसना और स्पर्शन - इन सोलहसूत्रों को भी घटित कर लेना चाहिए, इसी उपदेश से इनके अतिरिक्त और भी सूत्र बनाये जा सकते हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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